नवीन चौहान, हरिद्वार।संत धर्म और संस्कृति के संवाहक होते है। संत समाज ही सामाजिक जीवन के व्यक्ति को सत्य का मार्ग दिखलाते है। इसीलिये संतों को सनातन संस्कृति का रक्षक कहा जाता है। उक्त बात स्वामी आनंद चैतन्य महाराज ने संयास दीक्षा कार्यक्रम को संबोधित करते हुये कहीं।
कनखल स्थित चेतनानंद गिरी आश्रम में श्री महंत स्वामी विष्णु देवानंद गिरि महाराज ने अपने शिष्य स्वामी कृष्णानंद गिरि महाराज को सन्यास दीक्षा देते हुये अपना शिष्य बनाया। सन्यास दीक्षा देते हुये उन्होंने कृष्णानंद गिरि को आशीर्वाद दिया। तथा धर्म के मार्ग पर चलते हुये समाज और जनहित का उत्थान करने का वचन दिलाया। इससे पूर्व कृष्णानंद गिरि महाराज को वैदिक विधि विधान के अनुरूप सन्यास दीक्षा ग्रहण की। इस अवसर पर महामंडलेश्वर स्वामी आनंद चैतन्य जी महाराज ने कहा कि संत का प्रमुख कार्य धर्म के मार्ग पर चलकर समाज को सत्य से परिचित कराना होता है। इस कठिन कार्य को करने का संकल्प कृष्णानंद गिरि ने महाराज बनकर लिया है। लेकिन कृष्णानंद गिरि ने सन्यास दीक्षा ग्रहण करने के बाद गृहस्थ और परिवार से संबंध समाप्त कर लिये है। जिसके बाद संत कृष्णानंद गिरि संत परंपरा का निवर्हन करते हुये धर्म पताका को आगे बढ़ायेगे। इस अवसर पर स्वामी कृष्णानंद गिरि महाराज ने भी सनातन परंपरा को अक्षुण्य रखने के लिये गुरू द्वारा बताये मार्ग पर चलकर उसका निवर्हन करने का आशीर्वाद दिया। कार्यक्रम में महामंडलेश्वर स्वामी सोमेश्वरानंद गिरि, स्वामी रामेश्वरानंद सरस्वती, म.म. डा. स्वामी श्यामसुन्दरदास महाराज ने भी स्वामी कृष्णानंद महाराज को आशीर्वाद देते हुए उनके उज्ज्वल भविष्य की कामना की। स्वामी राजराजेश्वराश्रम महाराज ने भी समारोह मे ंउपस्थित होकर अपना आशीर्वाद प्रदान किया। संयासदीक्षा के पश्चात विशाल भण्डारे का आयोजन किया गया। इस अवसर पर निर्वाणी अखाड़े के सचिव महंत रविन्द्रपुरी महाराज, विनोदगिरि ऊर्फ हनुमानबाबा, स्वामी रामानंदगिरि, गविन्द्रानंदमहाराज, सेवकगिरि समेतबड़ी संख्या में संत उपस्थित थे।
विद्यार्थी जीवन में ही हुआ सांसारिक मोह भंग
कनखल के चेतनानंद गिरि आश्रम में बतौर विद्यार्थी कृष्णा ने प्रवेश लिया। आश्रम के प्रमुख महंत विष्णुदेवानंद गिरि महाराज के आशीर्वाद से उच्च कोटि की शिक्षा हासिल की। ज्योतिष विज्ञान का अध्ययन किया। जिसके बाद कृष्णा ने पारिवारिक और सांसारिक मोह त्यागकर सन्यास बनने का संकल्प किया। जिसके बाद महंत विष्णुदेवानंद गिरि ने अपने शिष्य को नया नाम कृष्णानंद गिरि दिया और सन्यास की दीक्षा दी।