नवीन चौहान
सत्य की कठिन डगर पर चलने का संकल्प लेकर स्वामी सत्यमित्रांनद गिरि महाराज ने अल्पायु में ही संन्यास की दीक्षा ली। सन्यास की दीक्षा लेने से पूर्व उनका नाम सत्य मित्र था। वहीं उनके भाई न्याय मित्र भी साथ ही ऋषिकेश में रहकर शिक्षा ग्रहण किया करते थे। स्वामी सत्यमित्रानंद गिरि महाराज ने संन्यास धारण कर लिया, जबकि न्यायमित्र शर्मा अपने अंतिम समय तक स्वामी सत्यमित्रानन्द गिरि महाराज के साथ रहे। और भारत माता मंदिर की सेवा में ही उन्होंने अपने प्राणों का उत्सर्ग किया। अपने तपोबल और अध्यात्म चिंतन के कारण स्वामी सत्यमित्रानन्द गिरि महाराज की संन्यास के कुछ ही समय बाद देश के प्रतिष्ठित संतों में उनकी गिनती होने लगी। उनकी विलक्षण अध्यात्म प्रतिभा को देखते हुए 29 अप्रैल 1960 अक्षय तृतीया के दिन मात्र 26 वर्ष की आयु में भानपुरा पीठ का शंकराचार्य बना दिया गया।
भानपुरा पीठ के शंकराचार्य के तौर पर करीब नौ वर्षों तक धर्म और मानव के निमित्त सेवा कार्य करने के बाद उन्होंने 1969 में स्वयं को शंकराचार्य पद का त्याग कर दिया और इसी के साथ दण्डी परम्परा से मुक्त होते हुए अपने दण्ड को गंगा में विसर्जित कर दिया। शंकराचार्य परम्परा को छोड़ने और दण्ड का गंगा में विसर्जित करने के बाद स्वामी सत्यमित्रानन्द परिव्राज्य बने गए। संत सेवा और समाज के पिछड़े, कमजोर और वनवासियों की सेवा ही उनका ध्येय बनकर रह गई। हमेशा गरीब और असहाय लोगों की मदद करना और धर्म का प्रचार करना उनका लक्ष्य रहा। स्वामी सत्यमित्रानंद महाराज का निधन देश के लिए एक अपूणीय क्षति है।
पदम विभूषण स्वामी सत्यमित्रानंद गिरि की विद्वता का लोहा सभी क्षेत्रों में माना जाता था। यही कारणा था कि उनके राजनेता, राजनैतिक दलों, उद्योगपतियों, समाजसेवियों में उनका पूरा सम्मान था। स्वामी सत्यमित्रानन्द संन्यासी होते हुए भी राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के विचारवान स्वंय सेवक और विहिप के केन्द्रीय मार्गदर्शक मण्डल के आजीवन सदस्य रहे। इन सब के अतिरिक्त जो स्वामी सत्यमित्रानन्द गिरि महाराज में जो खूबी थी वह थी उनका समय का पाबंद होना। जहां कहीं भी उनको कार्यक्रम में आमंत्रित किया जाता था, वे समय से पहुंच जाया करते थे।