जगद्गुरु रामानंदाचार्य स्वामी हंसदेवाचार्य महाराज का जाना देश के लिए अपूर्णीय क्षतिः राजेन्द्र पंकज




नवीन चौहान
जगद्गुरु रामानंदाचार्य स्वामी हंसदेवाचार्य महाराज ने प्रयागराज कुंभ मेले में साधनारत रहने के साथ कई सेवा प्रकल्पों में स्ंवय को समर्पित रखा। अपने पंडाल में जहां प्रतिदिन रमेश भाई ओझा के मुखारविंद से श्री राम कथा को श्रद्धालुओं को रसपान करवाकर राम मंदिर निर्माण के लिए सभी को एकजुट होने का संदेश दिया। वहीं आदिवासी समुदाय के सैंकड़ों लोगों के लिए प्रतिदिन अन्न, वस्त्र व पात्र सेवा की। प्रयागराज में मुलाकात के दौरान हुई चर्चा में देश के वर्तमान हालातों पर उन्होंने कहा था कि देश आज विषम परिस्थियों से गुजर रहा है। इसके लिए सभी को मिलकर प्रयास करने होंगे। राम मंदिर निर्माण में देरी पर उनका कहना था कि अब समय आ गया है कि श्री राम का भव्य मंदिर बने। इसके लिए उन्होंने मार्च के दूसरे सप्ताह में कांची में एक भव्य कार्यक्रम करने की भी बात कही थी। उनका मानना था कि यदि आपसी सहमति से श्री राम मंदिर का निर्माण होता है तो इससे अच्छा कुछ हो ही नहीं सकता। यदि ऐसा नहीं होता है तो सरकार को कानून बनाकर मंदिर निर्माण के मार्ग को प्रशस्त करना चाहिए। उनका मानना था कि राम के देश में ही यदि राम मंदिर नहीं होगा तो कहां होेगा। कहा था कि राम हमारी संस्कृति का आधार वह हमारे राष्ट्र की पहचान हैं। उन्होंने राम मंदिर के साथ देश के गरीब तबके को लेकर भी चिंता व्यक्त की। बताया था कि गरीबों के उत्थान के लिए ही उन्होंने प्रयागराज कुंभ में विशेष सेवा प्रकल्प जारी किया हुआ है। आदिवासी समुदाय के एक हजार लोगों को प्रतिदिन भोजन के साथ वस्त्र व पात्र भी दिए जाने का कार्यक्रम उन्होंने जारी रखा हुआ है। इसके लिए उन्होंने अपने पंड़ाल में आदिवासियों के निवास के लिए स्थान भी आरक्षित किया हुआ था। विहिप के राजेन्द्र पंकज ने जगद्गुरु रामानंदाचार्य स्वामी हंसदेवाचार्य महाराज के निधन पर शोक व्यक्त करते हुए बताया कि प्रयागराज में उनके पास जो भी जाता था वे उससे आत्मीयता के साथ मिलते थे और सभी का यथायोग्य सम्मान भी करते थे। बताया कि वे जगद्गुरु रामानंदाचार्य स्वामी हंसदेवाचार्य महाराज से बचपन से जुड़े हुए थे। उनका जाना उनके लिए इस प्रकार से है जिस प्रकार से व्यक्ति का एक अंग चला जाए। बताया कि प्रयागराज में रहकर उन्होंने अपना अधिंकाश समय साधना में जुटाया। उनका नियम था कि बिना हवन व पूजन के वह जल भी ग्रहण नहीं करते थे। प्रातः चार बजे से दस बजे त क उनकी साधना का समय नियत था। उनका जाना संत समाज और देश के लिए अपूर्णीय क्षति है।



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