सदन सो रहा — विपक्ष मौन रहा और पत्रकार ने तोड़ दी उत्तराखंड की जनता की नींद





नवीन चौहान
समाज में एक पत्रकार की भूमिका सजग प्रहरी के रूप में होती है। कि वह सरकार के गलत निर्णयों की आलोचना करें। सरकार के सामने एक मजबूत विपक्ष बनकर पत्रकार अडिग रहे। अपनी लेखनी से जनता को जगाकर रखे। लोकतंत्र में जनता की सरकार को जनता के अधिकारों के प्रति सचेत करता रहे। करीब तीन दशकों से उत्तराखंड के वरिष्ठ पत्रकार योगेश भटट अपनी जिम्मेदारी का पूरी ईमानदारी से निर्वहन कर रहे है। सरकार भाजपा की हो या कांग्रेस की लेकिन योगेश भट्ट की कलम से सभी को मुकाबला करना पड़ा।
वरिष्ठ पत्रकार योगेश भटट क्रांतिकारी विचारों के धनी है। उत्तराखंड के प्रति प्रेम उनकी लेखनी में साफ झलकता है। छोटी सी आयु में उत्तराखंड राज्य की मांग को लेकर आंदोलन में कूद गए। उत्तराखंड राज्य का गठन हुआ तो प्रदेश को खूबसूरत बनाने की विकासशील सोच विचारों में दिखाई देनी शुरू हुई। राजनैतिक दलों ने अपनी—अपनी पार्टी की सरकार बनाने के लिए दांव पेंच चले तो योगेश भट्ट को आत्मिक रूप से तकलीफ हुई। सत्ताधारी पार्टियों ने सत्ता सुख के लिए प्रदेश के मुददों को हाशिए पर रखा तो योगेश भटट की लेखनी ने नेताओं के खिलाफ मोर्चा खोल दिया। करीब दो दशकों में उत्तराखंड ने राष्ट्रपति शासन से लेकर दल—बदल के तमाम सियासी ड्रामे देखे। मुख्यमंत्री की कुर्सी के लिए तमाम भीतरघात देखे। राज्य आंदोलनकारी और वरिष्ठ पत्रकार योगेश भटट की लेखनी समाज में एक मजबूत विपक्ष के तौर पर अंगद के पैर की तरह जमी रही।
भले ही प्रदेश में विपक्ष मौन हो और सरकार सो रही हो लेकिन योगेश भटट की कलम जिंदा है। ऐसे ही जिंदादिल इंसान और युवा पत्रकारों के आदर्श योगेश भटट के जन्मदिन पर उनका ही लेख आपके लिए है।
जिस मुददे को लेकर उत्तराखंड की जनता अब जाग रही है। आज से करीब तीन साल पूर्व योगेश भटट ने अपने इस लेख से सभी को जगाने का कार्य किया था। यही है सच्ची पत्रकारिता और ईमानदार पत्रकार की भूमिका।

ये तो ‘जुर्म’ हुआ पहाड़ के साथ !

नाचिये, गाइये, झूमिये, जश्न मनाइये ! आखिर ‘पहाड़’ को खरीदने-बेचने का रास्ता जो साफ हो गया है । प्रचंड जनादेश वाली सरकार अपने ‘मंसूबे’ में एक बार फिर कामयाब हुई है। पहाड़ में कृषि भूमि खरीद की सीमा का प्रतिबंध और भू-उपयोग परिवर्तन की बाध्यता अब सरकार ने खत्म कर दी है । मसला ‘जमीन’ से जुड़ा था तो सरकार ‘अभूतपूर्व’ तत्परता दिखायी। शायद ही सरकार ने अपनी किसी घोषणा पर इतनी तेजी से अमल किया हो । इस फैसले के बाद अब पहाड़ को न चकबंदी कानून की जरूरत महसूस होगी और न पलायन से वीरान या भूतहा होते गांवों की चिंता ।

अब खेती, बागवानी, सड़क, स्कूल, अस्पताल, मास्टर, डाक्टर किसी के लिए भी परेशान होने की जरूरत नहीं । सरकार ने अपने ‘कड़े फैसलों’ से राज्य में इन सब समस्याओं से निपटने की पुख्ता व्यवस्था कर दी है । राज्य के सरकारी स्कूल और संस्थान बंद किये जा रहे हैं तो अस्पताल पीपीपी के जरिये ठिकाने लगाए जा रहे हैं । रहा सवाल ‘जमीनों’ का, तो अब जमीनों के सौदागर ‘पहाड़’ पर आएंगे । वो आपसे आपके हिस्से के पहाड़ का सौदा करेंगे, बोली लगाएंगे और देश विदेश के पूंजीपतियों को बिकवाएंगे । आप निसंकोच अपने हिस्से का पहाड़ बेचिये, उसकी कीमत पकड़िये और अपनी नयी राह चलिये ।

पहाड़ पर बंजर पड़ी जमीनों और वीरान गांवों को अब देश विदेश के उद्यमी आबाद करेंगे, पहाड़ पर उद्यमियों के आलीशान फार्म बनेंगे । उद्योग के नाम पर प्राइवेट होटल, रिसार्ट, कालेज, यूनिवर्सिटी, अस्पताल खड़े होंगे । तमाम संसाधन और सुविधाएं उन उद्योगों के हिसाब से जुटायी जाएंगी । और हां अब तो गैरसैण राजधानी की जरूरत भी नहीं, जिनके हाथ में ‘पहाड़’ आने जा रहा हैं उन्हें इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि ‘पहाड़’ की राजधानी पहाड़ में बने ।

सरकार ने हाल ही भू कानून में संशोधन का प्रस्ताव पारित कर ‘पहाड़’ को कितना गहरा ‘जख्म’ दिया है, इसका अभी किसी को शायद अंदाजा तक नहीं है । इस संशोधन का ‘पहाड़’ और पहाड़ के लोगों पर क्या दुष्प्रभाव पड़ेगा, यह अंदाजा होता तो शायद ही सदन में इस तरह का प्रस्ताव पारित होता । सरकार ने बेहद चतुराई से इसे अंजाम दिया, विपक्ष का और मीडिया का भी पूरा इस्तेमाल किया । जमीनों के ‘खेल’ को मुद्दा बनने ही नहीं दिया, कितना आश्चर्यजनक है कि सरकार ने इतना बड़ा खेल किया और कोई ‘चूं’ भी नहीं किया ।

चलिए अभी समझ न आया हो लेकिन अब कुछ दिनों बाद यह न कहियेगा कि सरकार ने यह ठीक नहीं किया । चुनाव के वक्त यह ‘स्यापा’ नहीं होना चाहिए कि सरकार ने उत्तराखंड को बेच दिया । इस रुदाली विलाप के साथ भविष्य में सरकार को नहीं कोसा जाना चाहिए कि पहाड़ के अस्तित्व को खत्म करने की साजिश हुई, जनभावनाओं के साथ खिलवाड़ हुआ, अलग राज्य की अवधारणा पर चोट की गयी, शहीदों के सपनों के साथ छल हुआ ।

याद रहे यह फैसला किसी माफिया या पूंजीपति की ताकत पर टिकी सरकार का नहीं, बल्कि विशुद्ध रूप से जनता की सरकार का है । यह किसी ऐसी कमजोर सरकार का फैसला नहीं जो किसी दबाव के आगे मजबूर हो, यह तो प्रचंड बहुमत की सरकार का फैसला है । यह प्रचंड बहुमत की ताकत ही तो है कि सरकार ने खुलेआम डंके की चोट पर यह फैसला लिया । सरकार ने पहले इसकी घोषणा की और फिर इसे अमल के लिये विधान सभा में कानून में संशोधन का प्रस्ताव बना किसी विरोध के पास किया ।
वास्तव में किसी को दर्द होता इस फैसले पर कड़ा एतराज होता । सरकार के 57 विधायकों में 40 से अधिक विधायक पहाड़ से हैं , कहीं तो इसका विरोध नजर आता । क्यों नहीं एक भी विधायक की यह कहने की हिम्मत नहीं हुई यह फैसला पहाड़ के पक्ष में नहीं है ? कोई पहाड़ का लाल ऐसा नहीं निकला, जिसने इसका विरोध किया हो । माना सत्ता पूरी तरह इसके पक्ष में थी, मगर लोकतंत्र में विपक्ष और जनपक्ष भी तो है । कहां नदारद था कथित विपक्ष और जनपक्ष, न सदन में बहस न सड़क पर हंगामा, न कोई पीआईएल सवाल । पक्ष, विपक्ष, मीडिया, जनता, एनजीओ, क्रांतिकारी सब खामोश । किसी को कोई एतराज नहीं ।

और तो और आश्चर्य यह है कि इस मुद्दे पर रस्मी विरोध तक नहीं हुआ । विपक्ष ने तो उल्टा सरकार की इसमें मदद ही की, गैरसैण और लोकायुक्त जैसे घिसे पिटे मुद्दों पर हंगामा कर असल मुद्दे से ध्यान ही हटा दिया । विपक्ष की रजामंदी के बिना तो यह संभव ही नहीं था । विपक्ष की मंशा सही होती तो सड़क से सदन तक इसे मुद्दा बनाया जाता । सदन में इस प्रस्ताव पर चर्चा होती, पूरे प्रदेश में इस संशोधन प्रस्ताव का विरोध होता ।

खैर चौंकिये नहीं, व्यवस्था का कड़वा सच यही है कि बेईमान अकेले सरकार ही नहीं बल्कि जनता भी है। जनता किस कदर संवेदनहीन हो चुकी है, यह हाल ही में प्रदेश की जनता देख चुकी है । पांच दिन पहले सुरक्षित प्रसव के लिए अस्पताल दर अस्पताल भटक रही महिला को प्रसव के लिए बस से सड़क पर उतार दिया गया । बस में सवार कोई भी सवारी इस महिला और उसके पति की मदद के लिए आगे नहीं आयी । मजबूर महिला ने सड़क पर ही बच्चे को जन्म दिया और दुर्भाग्यवश यह बच्चा जीवित नहीं बच पाया ।

यहां यह बताना जरूरी है कि जिस दिन की यह घटना है उस दिन विधानसभा का सत्र चल रहा था । लेकिन न सरकार, न विपक्ष कोई भी इस घटना से नहीं पसीजा । सत्ता पक्ष तो छोड़िये जिस विपक्ष से सदन में जनता के मुद्दों को उठाने की उम्मीद की जाती है, उसकी प्राथमिकता में इससे ज्यादा महत्वपूर्ण अपने विधायक का ईगो थी । जनता के मुद्दे छोड़ विपक्ष के एक विधायक का विधानसभा के गेट पर पूरे दिन इसलिए धरना रहता है, क्योंकि उसे विधानभवन में प्रवेश के दौरान सुरक्षाकर्मियों ने बिना पास के अंदर नहीं जाने दिया । अब अंदाजा लगाइये कि जिस जनता का प्रतिनिधित्व ऐसी सरकार और विपक्ष करते हों ,वह जनता कितनी संवेदनशील होगी ।

जहां तक पहाड़ का सवाल है, उसके नजरिये से देखा जाए तो निसंदेह यह जुल्म है और जुर्म है । सरकार का यह फैसला विकास का इंतजार कर रहे पहाड़ को बर्बादी के कगार पर खड़ा करने वाला है । यह फैसला पहाड़ की पहचान, उसके अस्तित्व, समाज और संस्कृति को खत्म करने वाला है । पहाड़ के खिलाफ इस फैसले का मुखर विरोध आज भले ही न हो रहा हो लेकिन इतिहास में इस काले फैसले के तौर पर दर्ज किया जाएगा । अफसोस यह खेल उस वक्त खेला गया जब उत्तराखंड में भी हिमाचल की तर्ज पर भू कानून बनाए जाने की जरूरत महसूस की जा रही है ।

मत भूलिये कि हिमाचल को आज भी उसके भू कानून के लिए याद किया जाता है । हिमाचल का भू कानून उसकी आत्मा है, उसकी तरक्की का आधार है । अपने यहां ठीक उल्टा है, उत्तराखंड का सबसे कमजोर पक्ष जमीन ही रहा है । सरकारें आती रही और राज्य की जमीनों को मनमाने ढंग से लुटाती रही है । जमीनों का उत्तराखंड के पास कोई हिसाब नहीं है, सरकारें जमीनों को खुर्द बुर्द करने के लए नए तरीके इजाद करती रही हैं । मौजूदा सरकार ने तो जमीनों से जुड़े दो बड़े फैसले लिए पहले नगर निकायों का सीमा विस्तार कर बड़े पैमाने पर जमीनें भू कानून से बाहर निकाल दी । इसके बाद भू कानून में संशोधन भी कर डाला । संशोधन का असल मकसद तो सिर्फ पहाड़ पर जमीन की बेहिसाब खरीद फरोख्त के लिए राह तैयार करना था।

‘सुनो’ सरकार को कोसने वालो.. सुनो, आरोप प्रत्यारोप तक सीमित जुबानी जंग लड़ने वाले विपक्ष.. जरा तुम भी सुनो, पहाड़ के पैरोकारो.. सुनो, ठेकेदारो.. सुनो, बंद कमरों की बैठकों और फेसबुक पर बौद्धिक झाड़ने वालो… तुम भी सुनो । याद रखना यह 7 दिसंबर 2018, इतिहास किसी को माफ नहीं करेगा । पहाड़ के साथ यह जो हुआ है वह जुर्म है … और इस ‘सिरे’ से उस ‘सिरे’ तक सब शरीके जुर्म हैं ।



Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *