‘बेईमान’ उत्तराखंड मांगे भू-कानून!




वरिष्ठ पत्रकार योगेश भट्ट की कलम से…

उत्तराखंड में भूमि बंदोबस्त कराइए, कृषि भूमि बचाने के लिए सशक्त भू कानून लाइए, जमीन की खरीद-फरोख्त को नियंत्रित करने के पुख्ता उपाय कीजिए, पर्वतीय क्षेत्रों में चकबंदी कराइए। हिमाचल की तर्ज पर भू कानून तैयार कीजिए, धारा 371 के तहत उत्तराखंड को विशेष राज्य का दर्जा दीजिए…

राज्य बनने के बाद से लगातार यह आवाज उठती रही। जब साल 2000 में राज्य बना तो पहली चिंता यही थी कि सीमित मात्रा में उपलब्ध राज्य की जमीन को बचाया जाए। आशंका थी कि उत्तराखंड में जमीनों की खरीद-फरोख्त हो सकती है। यह खरीद-फरोख्त राज्य के भविष्य, उसकी सांस्कृति विरासत और सामाजिक ताने-बाने के साथ राजनीति को भी प्रभावित कर सकती है।

दुर्भाग्य देखिए, इस आशंका और चिंता के बावजूद न सरकारों ने भूमि सुधार की दिशा में कदम उठाए और न जनता ने ही इसे मुददा बनाया। राज्य की मूल अवधारणा से जुड़ा यह मुददा न तो राजनैतिक मुददा बन पाया और न सामाजिक। नतीजा उत्तराखंड खुलेआम, बेरोकटोक बिकता रहा, लुटता रहा।

जरा गौर से देखिए अपने इर्द गिर्द, नेता, अफसर, ठेकेदार, सरकारी बाबू, मंत्री, संतरी, वकील, पत्रकार, मास्टर, डाक्टर…इनमें तरक्की करने वाले हर शख्स का आधार जमीन ही तो रहा है। सरकार, विपक्ष और यहां तक कि जनपक्ष, हर कोई जमीन के मुददे पर बेईमान रहा है।

आश्चर्य यह है कि आज यही ‘बेईमान’ उत्तराखंड भू-कानून मांग रहा है। हो सकता है किसी को बेईमान उत्तराखंड कहे जाने पर आपत्ति हो। आपत्ति होनी भी चाहिए, खासकर नई पीढ़ी के उन युवाओं को जो उत्तराखंड के लिए नई लड़ाई लड़ने के लिए प्रेरित हुए हैं। आपत्ति इसलिए भी होनी चाहिए क्योंकि इसकी परिकल्पना नहीं की गई थी।

दरअसल अहम सवाल ईमानदारी का ही तो है, अगर उत्तराखंड में मुददों के प्रति ईमानदारी होती तो मौजूदा पीढ़ी को बीस साल पुराने भू-कानून के मुददे पर अभियान नहीं चलाना पड़ता। मौजूदा पीढ़ी तो तरक्की के नए आयाम तलाश रही होती।

भू-कानून को ही देखिए, जब भी भू-सुधार या भू-कानून की बात उठती है तो हम हिमाचल प्रदेश की बात करते हैं। मांग भी यही होती है कि हिमाचल की तर्ज पर भू-कानून लागू किया जाए। पर कभी सोचा है कि भूमि सुधार में जो हिमाचल ने किया वह उत्तराखंड क्यों नहीं कर पाया ? इसकी एकमात्र वजह है ईमानदारी। फर्क सिर्फ असल मुद्दे के प्रति ईमानदारी का है।

जिस हिमाचल प्रदेश का उदाहरण दिया जाता है वह सन 1971 में पूर्ण राज्य बना और अगले ही साल 1972 में वहां भूमि सुधार अधिनियम लागू कर दिया गया। इसी अधिनियम की धारा 118 हिमाचल में गैर किसान, चाहे वह हिमाचली हो या गैर हिमाचली, को कृषि भूमि के हस्तांतरण से रोकती है। राज्य सरकार की अनुमति के बिना हिमाचल में भूमि का हस्तांतरण संभव नहीं है।

विशेष परिस्थितियों में अगर सरकार भूमि हस्तांतरण की अनुमति दे भी देती है तो वह गैर कृषक ही रहेगा।
यह मुददे के प्रति ईमानदारी ही तो है कि चाहकर भी सरकारों के लिए हिमाचल में धारा 118 में संसोधन संभव नहीं है।

अभी कुछ समय पहले जम्मू-कश्मीर में धारा 370 समाप्त होने के बाद यह खबर चली कि हिमालय के भू-अधिनियम की धारा 118 में संशोधन किया गया है तो इसकी हिमाचल में जबरदस्त प्रतिक्रिया हुई। सरकार को सफाई देनी पड़ी और मुख्यमंत्री ने स्पष्ट किया कि धारा 118 में कोई संशोधन नहीं किया गया है।

हर जगह की तरह विसंगतियां हिमाचल में भी हैं। कानून के तोड़ निकालकर जमीन का खेल वहां भी होता है। भू-माफिया वहां भी सक्रिय हैं मगर खासियत यह है कि वहां के कानून में स्पष्टता है, इच्छाशक्ति है, ईमानदारी है। वहां लगता है कि कानून राज्य के जंगल, आदिवासी परंपराओं और छोटे किसानों के हितों की रक्षा के लिए बनाया गया है।

ऐसा नहीं है कि हिमाचल में कानून का तोड़ निकालकर जमीनों का खेल नहीं खेला गया, मगर असल मुददे के प्रति ईमानदारी का नतीजा यह रहा कि वहां लगातार भू-सुधार कानून भी बनते रहे। इसी क्रम में वहां 1974 में भूमि हस्तांतरण पर रोक लगाई गयी तो 1988 में मुजारा खरीद पर रोक लगा दी गई। बता दें कि हिमाचल में भू-कानून का तोड़ निकालते हुए गैरकृषक कृषि भूमि खरीदने के लिए मुजारा यानी एक तरह से पट्टाधारक बनने लगे थे।

वसीयत के जरिए जमीन का खेल शुरू हुआ तो 1995 में गैर कृषकों को वसीयत से जमीन देने पर रोक लगा दी गई। यही नहीं, 2007 में धूमल सरकार ने जब 15 साल से हिमाचल में रह रहे बोनाफाइड हिमाचलियों को भूमि खरीद का अधिकार दिया तो इसका भी विरोध हुआ। विरोध के कारण सरकार को यह सीमा पंद्रह साल से बढ़ाकर तीस साल करनी पड़ी।

हिमाचल में कानून बनाकर पंचायतों के नियंत्रण वाली भूमि का पचास फीसदी साझे उपयोग के लिए संरक्षित किया गया है और शेष पचास फीसदी भूमि को स्थायी तौर पर सरकार में भूमिहीन व गरीबों के लिए एक एकड़ भूमि पूरी करने के लिए निहित किया गया है।

अब बात करते हैं उत्तराखंड की। यहां मुद्दे के प्रति बेइमानी का नतीजा है कि बीस बरस बाद भू-कानून की मांग उठ रही है। दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि आज भू-कानून की आवाज उठाने वालों में अधिकांश वो हैं जो खुद राज्य की जमीनों को लुटाने के जिम्मेदार रहे हैं। यहां भू-कानून के नाम पर सिर्फ मखौल हुआ, सरकारों ने छल किया तो जनता मौकापरस्त बनी रही।

जिस भू-कानून की बात आज हो रही है वह तो पहले तो अंतरिम सरकार, नहीं तो पहली निर्वाचित सरकार के कार्यकाल में तैयार हो जाना चाहिए था। सशक्त भू-कानून और भूमि सुधार की जरूरत तो उत्तराखंड को पहले दिन से ही थी, मगर सवाल मुद्दे की ईमानदारी का था। सत्ता पक्ष, विपक्ष और जनपक्ष कोई भी ईमानदार नहीं था। आज बाहरी का रोना रो रहे हैं लेकिन कड़वी हकीकत तो यह है राज्य के लोगों ने बाहरी लोगों को ही जमीन बेचने को प्राथमिकता दी।

नए राज्य के एक मनोवैज्ञानिक दबाव के चलते साल 2002 में सरकार ने भू-कानून के नाम पर जमींदारी विनाश अधिनियम में संशोधन करते हुए राज्य से बाहर के व्यक्तियों के लिए भूमि खरीद की सीमा 500 वर्ग मीटर जरूर की, मगर वह सिर्फ नजर का धोखा साबित हुआ। राज्य में प्रभावी कानून में यह संशोधन होने के बाद से बाहरी व्यक्तियों द्वारा 500 वर्ग मीटर से अधिक भूमि या कृषि भूमि सिर्फ राज्य सरकार की अनुमति से ही खरीदी जा सकती थी।

यह प्राविधान तो एक तरह से जमीनों की अनियमित खरीद फरोख्त पर रोक के लिए होना चाहिए था मगर उत्तराखंड में सरकार ने बड़े पैमाने पर बाहरी लोगों को जमीन खरीद फरोख्त की इजाजत दी। इस कानून में एक और झोल यह था कि बाहरी व्यक्तियों के लिए 500 वर्ग मीटर भूमि खरीद का यह प्रतिबंध नगर निकायों की सीमा से बाहर के लिए किया गया था।

नगर निकाय की सीमा के भीतर कोई भी व्यक्ति कितनी भी जमीन खरीद सकता था, उसके लिए किसी इजाजत की आवश्यकता नहीं थी। कानून के इसी झोल का फायदा उठाकर सरकार और जमीन के सौदागर उत्तराखंड में जमीनों को लुटाने का खेल खेलते आ रहे हैं।

बीते दो दशक में सरकार नगर निकायों की सीमा बढ़ाकर हजारों हैक्टेयर जमीन को खरीद-फरोख्त के लिए भू-कानून के दायरे से बाहर कर चुकी है। कहीं कोई आपत्ति नहीं, कोई विरोध नहीं, उल्टा नगर निकायों की सीमा बढ़ाने को सरकार की उपलब्धि के तौर पर गिनाया गया। सरकारों का इसके लिए धन्यवाद किया गया, आभार जताया गया।

भू-कानून के नाम पर आंख में धूल झोंकने का यह सिलसिला यहीं नहीं रुका। साल 2007 में दूसरी निर्वाचित सरकार भू-कानून में 500 वर्ग मीटर के प्रतिबंध को 250 वर्ग मीटर कर देती है। यह साबित करने की कोशिश की जाती है कि सरकार राज्य की जमीन को बचाने के लिए बेहद संजीदा है। मगर पर्दे के पीछे से जमीन लुटाने का खेल बदस्तूर चलता रहा।

राज्य की उपजाऊ जमीन विकास और उद्योग के नाम पर बिल्डरों और संपन्न लोगों को लुटाई जाती रही। उस सरकार में बड़े पैमाने पर भूमि खरीद की इजाजत दी गयी। आश्चर्यजनक यह है कि उस सरकार में उत्तराखंड क्रांति दल भी शामिल था और उक्रांद के कोटे से मंत्री बने दिवाकर भट्ट सरकार में राजस्व मंत्री थे।

उक्रांद चाहता तो तब मजबूत भू-कानून बनवा सकता था लेकिन सवाल फिर वही मुददे के प्रति ईमानदारी का है। आश्चर्य तो यह है कि तब सरकार ने नगर निकायों की सीमा बढ़ाकर बड़े पैमाने पर जमीन को भू-कानून के प्रतिबंध से बाहर किया।

अब तक यानि दस बरस पूरे होने तक राज्य की अधिकतर जमीन बिक चुकी थी, इसी के साथ भू-कानून को लेकर उठने वाली ईमानदार आवाज भी मंद पड़ने लगी थी। ऐसा लगने लगा मानो भू-कानून की जरूरत उत्तराखंड को तो थी लेकिन इसके नीति-नियंताओं और जनता को नहीं थी। इसका एक उदाहरण ग्रीष्मकालीन राजधानी गैरसैंण है।

राज्य की तीसरी निर्वाचित सरकार ने गैरसैण में जमीन की खरीद फरोख्त पर रोक लगाई, मकसद यह था कि गैरसैण में नियोजित अवस्थापना विकास हो सके और जमीन की अनियमित खरीद न हो।

आश्चर्य यह है कि गैरसैंण में इस रोक के बाद सबसे ज्यादा खरीद-फरोख्त हुई। सौ रूपए के स्टांप पेपरों पर करोड़ों की खरीद-फरोख्त को अंजाम दिया गया। सरकारी रोक के बावजूद भी जमीन के अनियमित खरीद फरोख्त का कारोबार नहीं रूका। नई सरकार आई तो उसने खरीद फरोख्त पर लगी रोक ही हटा दी।

चौथी निर्वाचित सरकार में तो मानो भू-कानून की अवधारणा ही खत्म हो गई। सरकार ने जमीन की खरीद-फरोख्त के लिए कानून में संशोधन करते हुए ‘रेड कार्पेट’ बिछा दिया। सरकार ने 2018 में कृषि भूमि को अकृषि करने के लिए 143 की बाध्यता को खत्म कर दिया। कानून में संशोधन कर यह व्यवस्था की गई कि औद्योगिक प्रायोजनों के लिए खरीदी गई भूमि को अकृषि कराने के लिए अलग प्रक्रिया नहीं अपनानी पड़ेगी।

भूमि खरीदने के साथ स्वतः ही भू-उपयोग बदल जाएगा। यही नहीं, अधिनियम की धारा 154-2 में किसी भी व्यक्ति द्वारा साढ़े बारह एकड़ जमीन खरीदने की सीमा हटा दी गयी। आश्चर्यजनक यह है कि सरकार ने यह सब चोरी छिपे नहीं किया, खुलेआम बकायदा पहले इसके संकेत देकर और अपनी मंशा जाहिर करके किया। सरकार के इन फैसलों की न तो विपक्ष में प्रतिक्रिया रही और न आम जनता में।

आज उत्तराखंड में जमीन के हालत क्या हैं इसका अंदाजा इससे लगाया जा सकता है कि राज्य में हर साल औसतन पांच हजार हेक्टेयर कृषि भूमि खत्म हुई है। कुल लगभग आठ लाख हेक्टेयर भूमि में से तकरीबन एक लाख हेक्टेयर भूमि खत्म हो चुकी है। हर साल औसतन तीन हजार हेक्टेयर खेती की भूमि बंजर हो रही है। यह तो सरकारी आंकड़ा है, असलियत तो इससे अधिक भी हो सकती है

राज्य के प्रसिद्ध पर्यटक स्थल मसूरी और नैनीताल के चारों ओर की भूमि तो पहले ही राज्य से बाहर के लोगों के कब्जे में थी, मगर बीते बीस साल में तो ऋषिकेश से सीमांत उत्तरकाशी और चमोली और रामनगर से सीमांत पिथौरागढ़ तक पहाड़ के पहाड़ बिक चुके हैं। हरियाणा, दिल्ली, पंजाब आदि राज्यों के नंबर प्लेट वाली गाड़ियां राजमार्गों से हटकर पहाड़ के दूरस्थ गांवों तक पहुंच चुकी हैं।

ऐसे में अब सवाल यह है कि क्या मौजूदा परिस्थतियों में वह भू-कानून प्रासंगिक है जिसकी मांग उठ रही है। आखिर एक अदद भू-कानून की मांग अब क्यों ? दो बरस पहले जब सरकार ने कानून में संशोधन कर जमीन की खरीद-फरोख्त की खुली छूट दी, तब क्यों नहीं उठी आवाज ? गैरसैण में भूमि खरीद-फरोख्त की छूट देने पर क्यों नहीं हुआ विरोध ? क्यों नगर निकायों की सीमा में गांवों को शामिल करने और कृषि भूमि शामिल करने का व्यापक विरोध किया गया ? कहां सोया था विपक्ष और कहां थे वो सियासतदां जो आज भू-कानून की बात कर रहे हैं ?

आज जब आभासी मंच पर भू-कानून की मांग ट्रेंड कर रही है तो यह सवाल भी जरूरी है कि आज हम किस जमीन को बचाने की बात कर रहे हैं। उत्तराखंड को भू-कानून की जरूरत राज्य बनने के तुरंत बाद से थी। कड़े और मजबूत भू-कानून की जरूरत इसलिए थी ताकि राज्य के पास उपलब्ध सीमित भूमि खासकर कृषि भूमि को बचाया जा सके। भू-कानून इसलिए भी जरूरी था कि राज्य के लोग तुरंत पैसा पाने के लालच अपनी जमीन बाहरी लोगों को न सौंप दें।

बीस साल हो गए, उत्तराखंड एक मजबूत भू-कानून का इंतजार ही करता रह गया। मुट्ठी भर लोग इसकी मांग करते रहे मगर कौन बनाता कानून ? जिस वक्त राज्य में सशक्त भू-कानून बनाया जाना था उस वक्त तो राज्य में जमीन की खरीद-फरोख्त का कारोबार चरम पर पहुंच रहा था। बड़े-बड़े नेता, पत्रकार, वकील, ठेकेदारों से लेकर आईएएस और आईपीएस अफसर तक जमीन की डील में शामिल थे।

यही नहीं, टीचर और डाक्टर भी जमीन के धंधे में हाथ आजमा रहे थे। सचिवालय से लेकर सरकारी कार्यालयों और पुलिस थाना-चैकियों तक में जमीन खरीदवाई और बिकवाई जा रही थी। बीस साल में तरक्की करने वालों में अधिकांश की तरक्की का राज जमीन का यह काला सफेद कारोबार ही तो रहा है।

यह अपने आप में आश्चर्य है कि भू-कानून की मांग को लेकर अचानक कई संगठन वजूद में आ गए हैं। सोशल मीडिया आभासी मंच पर एक आंदोलन खड़ा हो रहा है। दो साल पहले मौजूदा सरकार द्वारा भू-कानून में किए गए जिन संशोधनों पर चूं तक नहीं की गई, इन दिनों उनका भी विरोध किया जा रहा है। विरोध करने वालों में कुछ की स्थिति ‘सौ-सौ चूहे खाकर बिल्ली हज को चली’ जैसी है ।

अब तो कांग्रेस के कुछ नेताओं के साथ ही पूर्व मुख्यमंत्री हरीश रावत इस मुददे पर खुलकर मैदान में हैं और वायदा कर रहे हैं उनकी सरकार आती है तो हिमाचल से मजबूत भू-कानून लाएंगे। भू-कानून की इस मांग पर यह तो कतई नहीं कहा जा सकता कि देर आए, दुरूस्त आए। भू-कानून के मुददे पर तो फिलवक्त स्थिति ‘अब पछताए होत क्या, जब चिड़िया चुग गयी खेत’ जैसी है ।

हां, इस बहाने युवाओं का राज्य की अवधारणा से जुड़े एक अहम मुददे पर मुखर होने को राज्य के भविष्य के लिए अच्छा संकेत जरूर माना जा सकता है । बशर्ते यह आसन्न विधानसभा चुनाव के मददेननर ‘सियासी हनी ट्रैप’ न हो। भू-कानून के बहाने ही सही, अगर उत्तराखंड के भविष्य को लेकर युवा संवाद होता है, यह भी अपने आप में बड़ी बात है।

मगर अंततः सवाल फिर से मुददे के प्रति ईमानदारी का है। आंदोलन हो या सियासत मुददों पर ईमानदारी दोनों जगह जरूरी है। सनद रहे, जहां मुददों पर ईमानदारी नहीं होती वहां न सियासत चमकती है और न ही आंदोलन अंजाम तक पहुंचते हैं। जहां तक सवाल उत्तराखंड को बचाने का है तो मुद्दे और भी हैं जिन पर समय रहते बात करनी जरूरी है ।



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