शह’ और ‘मात’ के खेल में छात्रवृत्ति घोटाला




योगेश भट्ट
उत्तराखंड में छात्रवृत्ति घोटाले की जांच भी धीरे धीरे उसी ‘मोड’ की ओर बढ़ रही है, जहां पहुंच कर किसी भी घोटाले की जांच हवा हो जाती है । अब कुछ मुकदमे होंगे, कुछ छुटभैय्यों पर गाज गिरेगी , कुछ दस्तावेज जब्त होंगे, कुछ दिनों के लिए कुछ बिचौलिये सलाखों के पीछे चले जाएंगे । यह एक्शन कुछ दिन खबरों की सुखिर्यों में रहेगा, सरकार भ्रष्टाचार पर फिर नए ‘जुमले’ गढ़ेगी, अपनी पीठ थपथपाएगी और उसके बाद छाएगा गहरा सन्नाटा । इस बीच शुरू होगा कभी न खत्म होने वाला कानूनी दांव पेच का खेल, समय बीतता जाएगा और फिर एक दिन सब कुछ पहले की तरह सामान्य । घोटाले के मास्टर माइंड बड़े अफसरों और दलालों का कुछ नहीं बिगड़ेगा। उन संस्थानों के मालिकों तक किसी का हाथ नहीं पहुंचेगा, जिनका व्यवसाय ही गरीब के हक पर ‘डाका’ डालना है । उन्हें संरक्षण देने वाले मंत्रियों और सचिवालय में बैठे छोटे बड़े नौकरशाहों से भी कोई सवाल जवाब नहीं होगा। गरीब के हक का करोड़ों डकारने वालों से कोई वसूली नहीं होगी, नौकरशाहों और सफेदपोशों को कोई सबक नहीं मिलेगा। पूरा मामला इस कदर कानूनी पेचीदगियों में फंस चुका होगा कि कोई सवाल नहीं उठेगा। वक्त निकलता जाएगा और अचानक कोई नया घोटाला सामने आ चुका होगा, वह इतना बड़ा होगा कि हम भूल जाएंगे कि कोई सैकड़ों करोड़ का कोई छात्रवृत्ति घोटाला भी हुआ था ।
नेता और अफसर लाख दावे कर लें कि छात्रवृत्ति घोटाले के दोषियों को बख्शा नहीं जाएगा, मगर इस घोटाले में भी होगा अंतत: यही । यह तो उत्तराखंड की नियति है, क्योंकि यहां पूरा तंत्र ही भ्रष्ट है। अफसरों और नेताओं की संवेदनाएं यहां खत्म हो चुकी हैं, उनका जमीर मर चुका है । सरकार यहां किसी भी राजनैतिक दल की हो, मगर चलती वह सिर्फ नेता, अफसर और ठेकेदारों के ‘गिरोह’ से ही है । जिसे इस बात से फर्क नहीं पड़ता कि गरीब के हक पर डाका पड़ रहा है । फर्क पड़ रहा होता तो सालों से चल रहे छात्रवृत्ति घोटाले पर कब का विराम लग चुका होता । जांच दर जांच में उलझाने बजाय हिमाचल की तरह उत्तराखंड में भी छात्रवृत्ति घोटाले की जांच सीबीआई को सौंप दी गयी होती । सीबीआई अब तक घोटाले में शामिल तमाम महकमों, संस्थाओं और संस्थानों को बेनकाब कर चुकी होती । विडंबना देखिए छात्रवृत्ति घोटाला उत्तर प्रदेश के वक्त से होता चला आ रहा है, लेकिन आज भी सिर्फ लकीर पीटी जा रही है। उत्तराखंड में तकरीबन पंद्रह साल पहले तमाम तथ्यों के साथ इसका खुलासा हो चुका था कि प्रदेश में छात्रवृत्ति की रकम गरीब की ‘कुटिया’ के बजाय ‘महलों’ में जा रही है । फर्जी छात्रों और संस्थानों के नाम पर हर साल लाखों रुपए डकारे जा रहे हैं । अफसोस, सरकार न अब गंभीर हैं और न तब चेती , औपचारिकता भर के लिए जांच करायी और जांच में घोटालेबाजों को ‘क्लीन चिट’ दे दी गयी । चेतती भी कैसे सरकार के बड़े अफसरों और सफेदपोशों को छात्रवृत्ति की रकम से ऐश जो करायी जा रही थी । उस वक्त शासन और सरकार की शह से घोटालेबाजों के हौसले इस कदर बुलंद हुए कि सालाना लाखों का घोटाला बढ़कर करोड़ों में पहुंच गया । वक्त बीतता गया इधर शिकायतें होती रहीं उधर घोटालेबाज अफसरों को ही जांच भी सौंपी जाती रही, और हर जांच का नतीजा सिफर । लूट का सिलसिला बदस्तूर जारी रहा ।
करोड़ों के घोटाले का पहली बार खुलासा तब हुआ, जब आईएएस अफसर वी षडमुगम ने छात्रवृत्ति आंवटन की नमूना जांच की । अपनी जांच में इस अधिकारी ने छात्रवृत्ति वितरण में ‘महाघोटाले’ का इशारा करते हुए और विस्तृत जांच की सिफारिश की । नमूना जांच में यह सामने आ चुका था कि एक ही शिक्षण सत्र में एक ही छात्र तीन तीन संस्थानों से अलग अलग पाठ्यक्रमों में दाखिला लेकर छात्रवृत्ति ले रहा है । कुछ संस्थानों में फर्जी छात्र दिखाकर छात्रवृत्ति हड़पने और कम आय दिखाकर छात्रवृत्ति लेने का भी खुलासा हुआ । पता चला कि समाज कल्याण विभाग ने कई मामलों में छात्र छात्राओं के खाते बजाय नियम विरुद्ध सीधे संस्थान संचालकों और कर्मचारियों के खातों में छात्रवृत्ति की रकम डाली। नियमानुसार विभाग को छात्रवृत्ति पाने वालों को सत्यापन करना था, मगर जांच में यह भी सामने आया कि विभाग द्वारा लाभार्थियों का सत्यापन ही नहीं किया गया । कहते हैं कि आईएएस अफसर की कलम ‘पत्थर की लकीर’ की तरह होती है, मगर आश्चर्य यहां एक आईएएस अफसर की जांच पर किसी निष्पक्ष और बड़ी जांच एजेंसी से आगे जांच कराने के बजाय एक नयी जांच के मार्फत उस जांच को ही नकार दिया । इससे भी ज्यादा चौंकाने वाला तो यह रहा कि आईएएस अफसर की जांच रिपोर्ट की जांच जिस समिति ने की उसमें घोटाले के आरोपी विभागीय अधिकारी भी शामिल किये गए । खैर कुछ समय बाद विभाग में अपर सचिव बनाए गए भारतीय वन सेवा के अफसर मनोज चंद्रन ने आईएएस अफसर षडमुगम की जांच को गंभीर मानते हुए जब सरकार से घोटाले की सीबीआई जांच कराए जाने की सिफारिश की तो मामला फिर सुखिर्यों में आ गया । गेंद एक बार फिर से सरकार के पाले में थी, सरकार की मंशा साफ होती तो मनोज चंद्रन की सिफारिश को गंभीरता से लिया जाता । सरकार पूरे मामले की सीबीआई से जांच कराने का फैसला ले सकती थी । घोटाले की व्यापकता को देखते हुए इस फैसले की दरकार भी थी । मगर नहीं सरकार की मंशा में तो पहले से ही खोट था, इसलिए मनोज चंद्रन की सिफारिश भी दबा दी गयी । यहीं से सरकार चला रहे राजनैतिक नेतृत्व और नौकरशाहों की भूमिका और राज्य के प्रति उनकी निष्ठा पर सवाल उठते हैं ।
ऐसा नहीं है कि भ्रष्टाचार की जड़े सिर्फ उत्तराखंड में ही हैं, हर राज्य में यह ‘रोग’ पसरा है । भ्रष्ट तंत्र मंआ घोटाले घटित होना कोई बड़ी बात नहीं है, बड़ी बात है सरकार का भ्रष्टाचार को संरक्षण होना । उत्तराखंड का दुर्भाग्य है कि यहां सरकार की मंशा घोटालेबाजों को सबक सिखाने की रही ही नहीं । पड़ोसी हिमाचल को ही देखिए वहां भी छात्रवृत्ति वितरण में ऐसा ही कुछ घपला हुआ, मगर वहां सरकार की मंशा साफ थी । बीते साल एक शिकायत पर जांच के दौरान वहां 2013-14 से 2016-17 तक तकरीबन ढाई लाख अनुसूचित जाति और जनजाति के छात्रों को छात्रवृत्ति जारी करने में गड़बड़ी पायी गयी । पता चला कि छात्रवृत्ति वितरण की इस दौरान कोई मानिटरिंग ही नहीं हुई । तकरीबन बीस हजार छात्रों के नाम पर चार मोबाइल नंबर से जुड़े खातों में छात्रवृत्ति की रकम जारी की गयी, 360 छात्रों की छात्रवृत्ति मात्र चार बैंक खातों में ट्रांसफर हुई । मामला बड़े संस्थानों और दूसरे राज्यों से भी जुड़ा था तो हिमाचल की जयराम सरकार ने बिना देर किये तत्काल सीबीआई को मामला सौंप दिया । सीबीआई ने मामला हाथ में लेते ही साफ कर दिया कि घोटाले के तार हरियाणा, पंजाब, चंडीगढ़ और अन्य राज्यों से भी जुड़े हैं । और देश के तकरीबन 295 संस्थानों ने गरीबों के हिस्से की रकम पर डाका डाला गया है । सीबीआई की टीमें अभी तक चार राज्यों में स्थित 22 संस्थानों में छापे मार कर दस्तावेज जब्त कर चुकी हैं । जिनमें कई इंजीनियरिंग कालेज भी शामिल हैं, जिन संस्थानों में छापेमारी हुई है उनमें कई संस्थानों के प्रबंधकों का सियासी दलों से नजदीकी रिश्ता बताया जाता है । हिमाचल में ही 26 संस्थानों को सीबीआई ने अपने रडार पर लिया हुआ है । यही नहीं वहां बैंक के अधिकारियों से भी पूछताछ की जा रही है । नतीजा यह है कि हिमाचल में 250 करोड़ का छात्रवृत्ति घोटाले की जांच सरकार की इच्छाशक्ति के चलते अंजाम तक पहुंचने जा रही है ।

यही फर्क है हिमाचल और उत्तराखंड का, यहां तंत्र राज्य के प्रति ही निष्ठावान नहीं है । जरा गौर कीजिये यहां घोटाले पर से पर्दा तो 2005 में उठ चुका है, 2013 से तो बड़ा शोर है । हाल यह है कि घोटाले के कई आरोपी दिवंगत हो चुके है मगर घोटाले की जांच अंजाम तक पहुंचने की अभी कोई उम्मीद नहीं है । ऐसे में न्याय की उम्मीद की जाए तो भी कैसे ? आज एसआईटी जांच हो रही है तो उसके पीछे सरकार की मंशा नहीं बल्कि एक ‘दबाव’ है । पेशे से अधिवक्ता एवं सामाजिक कार्यकर्ता चंद्रशेखर करगेती तमाम माध्यमों से इस घोटाले के खिलाफ लगातार आवाज उठाते रहे, घोटाले से जुड़े दस्तावेजों को सार्वजनिक करते रहे तब कहीं जाकर एसआईटी जांच हो रही है । महीनों तक तो यह आदेश भी दबे ही रहे और जब एसआईटी गठित हुई भी तो समाज कल्याण विभाग ने छात्रवृत्ति से संबंधित दस्तावेज ही नहीं सौंपे । देहरादून निवासी सामाजिक कार्यकर्ता रविंद्र जुगरान की जनहित याचिका पर उच्च न्यायालय ने विभाग को फटकार न लगायी होती तो एसआईटी को दस्तावेज मिलना संभव नहीं था । आज एसआईटी जांच में विभाग के कुछ अफसरों तक जांच का शिकंजा जरूर पहुंचा है लेकिन बहुत दिन तक यह शिकंजा कसा रहेगा इसमें संदेह है । निसंदेह पुलिस अधीक्षक स्तर के आईपीएस अधिकारी मंजूनाथ ने अभी तक एसआईआटी प्रभारी के तौर पर वाकई काफी मेहनत की है, घोटाले से कई परतें उठायी हैं । मगर जांच को वह अंजाम तक पहुंचा पाएंगे ऐसा दूर तक नजर नहीं आता । घोटाले की व्यापकता और गहराई का अंदाजा उन्हें खुद भी लग चुका होगा ।

हकीकत यह है कि इस घोटाले में अकेले समाज कल्याण के ही अफसर नहीं बल्कि बैंक और शिक्षा विभाग के अफसर कर्मचारी भी शामिल हैं । घोटाले के तार अन्य प्रांतों से भी जुड़े हैं, सफेदपोश और बड़े नौकरशाहों की भूमिका भी इसमें सवालों के घेरे में है । हाल यह है कि एक संयुक्त निदेशक के खिलाफ विवेचना के लिए भी एसआईटी को शासन से इजाजत लेनी होती है, इसी में महीनों गुजर जाते हैं। हाल में बामुश्किल जिन सात अधिकारियों से पूछताछ की एसआईटी को इजाजत मिली है वह सब तो विभागीय हैं, जिनमें से दो अधिकारियों का निधन भी हो चुका है । अंदाजा लगाइये अगर बात आईएएस और पीसीएस अफसरों से पूछताछ होनी होगी तो स्थिति क्या होगी ? मसला बड़ा है सही से जांच की गयी तो डेढ़ हजार से अधिक संस्थानों की जांच करनी होगी, दूसरे विभाग के अफसरों को भी रडार पर लेना होगा। दूसरे राज्यों में स्थित संस्थानों को खंगालना होगा । निश्चित तौर पर एसआईटी के लिए यह चाह कर भी संभव नहीं होगा । ऐसे में अंजाम क्या होगा, जरा सोचिये ?
जरा अतीत के पन्ने उलटिये और देखिये कि अभी तक क्या हुआ है ? उत्तराखंड बनते वक्त राजधानी निर्माण घोटाले से लेकर एनएच 74 भूमि घोटाले के बीच राज्य में सौ से अधिक घोटाले हुए है । पचास से अधिक घोटालों में तो करोड़ों का हेरफेर हुआ, जांच के लिए कई आयोग बने कमेटियां बनीं, नतीजा सिफर रहा । आयोग और एसआईटी अगर किसी नतीजे पर पहुंच गए तो जरूरी नहीं कि उनकी जांच रिपोर्ट को मान ही लिया जाए, यह भी संभव है कि उस जांच रिपोर्ट की भी फिर से एक और जांच करा दी जाए । चर्चित ढेंचा बीच घोटाले का उदाहरण हमारे सामने है । अहम बात यह है कि घोटाले का खुलासा हो भी जाए तो फिर भी एक्शन का पूरा दारोमदार सरकार पर होगा । बिना सरकार की इजाजत के आईएएस या पीसीएस तो छोड़िये एक अदने से अफसर के खिलाफ भी अभियोजन की कार्यवाही नहीं होगी । ज्यादा से ज्यादा सरकार ‘फेस सिवंग’ के लिए कुछ छोटों के खिलाफ एक्शन लेकर पूरा खेल ही खत्म कर देगी । एनएच 74 के प्रकरण को ही लीजिये 300 करोड़ से ऊपर के इस घोटाले में आखिरकार क्या हुआ ? घोटाले में जैसे ही आईएएस अफसर जद में आने लगे तो एसआईटी प्रमुख सदानंद दाते की राज्य से विदाई हो गयी । कहां तो एकबारगी आईएएस अफसरों पर गिरफ्तारी की तलवार लटक रही थी, सफेदपोशों की भूमिका पर सवाल उठ रहे थे । मगर हुआ क्या ? घोटाले में आरोपी आईएएस अफसर कुछ दिन निलंबित रहे और फिर बहाल हो गए जो पीसीएस और छोटे अफसर सलाखों के पीछे गए अब तो वह भी जेल से बाहर आ चुके हैं । सभी का निलंबन खत्म हो चुका है और और दिलचस्प यह है कि सभी को शासन से पोस्टिंग भी मिल चुकी है । कुछ समय बाद तो एनएच घोटाले का जिक्र भी नहीं होगा ।
बहरहाल छात्रवृत्ति घोटाला ‘शह’ और ‘मात’ के दिलचस्प खेल में फंसा है । घोटालेबाजों ने अपने बचने के लिए पूरे ‘घोड़े’ खोले हुए हैं । ऐसे में एसआईटी जांच को कितनी दूर तक खींच पाएगी, यह देखना दिलचस्प होगा । इधर उनका भी बाहर आना भी शुरू हो गया है, जिन्हें एसआईटी ने घोटाले में सलाखों के पीछे भेजा । हर किसी को इंतजार उन ‘बड़ों’ पर एक्शन का है जो बिना डकार लिए करोड़ों ‘हजम’ कर चुके हैं । सवाल उठ रहा है कि उत्तराखंड के छात्रवृत्ति घोटाले की सीबीआई जांच क्यों नहीं ? सूत्रों की मानें तो सीबीआई तैयार है बशर्ते राज्य सरकार इसका निर्णय ले । सरकार की मंशा देखते हुए तो लगता है कि हर केस की तरह इस केस में भी एसआईटी शाहिर लुधायनवी का शेर ‘ वो अफसाना जिसे अंजाम तक लाना न हो मुमकिन, उसे इक खूबसूरत मोड़ देकर छोड़ना अच्छा’ गुनगुनाते हुए इक दिन चुपके से निकल जाए ।



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