त्रिवेंद्र सरकार के विकास के तीन साल ‘बातें कम और काम ज्यादा’, बातों के सिवाय हुआ ही क्या ?




योगेश भट्ट

विकास के तीन साल : ‘बातें कम और काम ज्यादा’ यह स्लोगन है त्रिवेंद्र सरकार के तीन साल पूरे होने पर चलाए जा रहे सरकारी कैंपेन का। सरकार का यह स्लोगन हकीकत से तो कहीं मेल नहीं खाता। सच तो यह है कि अभी तक सिर्फ बातें ही तो हुईं ! सिवाय बातों के हुआ ही क्या ? शिक्षा, स्वास्थ्य, पर्यटन, उद्योग, ऊर्जा, कृषि, बागवानी आदि कहीं कुछ जमीनी हुआ तो बताइये ! प्रदेश में रोजगार योजनाएं, स्टार्टअप, उद्यमिता और विकास का माडल सब कुछ हवा हवाई हैं। तीन साल में बातें कहीं कम नहीं हुईं, बातें तो वीरों की भूमि में राष्ट्रवाद जगाने से लेकर गाय के आक्सीजन छोड़ने और पत्थर से असाध्य रोगों के इलाज तक की हुई। नहीं हुआ तो सिर्फ वह काम, जिसके लिए सरकार को बड़ा जनादेश मिला।

सरकार के काम पर तो बातें तो अगले लेख में, आज बात उन सरकारी बातों की जो ‘बातें’ ही रहीं। सरकारें दावा करती है, काम हुआ तो बताइये काम कहां है ? अब तो तीन साल पूरे हो चुके हैं, कहां है वो गढ़वाल और कुमाऊं को जोड़ने वाली कंडी रोड जिसकी बात त्रिवेंद्र सरकार ने पहले ही दिन की थी ? कहां है वो डुबकी लगाने वाली ऋषिपर्णा जिसको लेकर बड़ी-बड़ी बातें मुख्यमंत्री ने दो साल पहले की थी ? यही था वायदा कि दो साल में रिस्पना को ऐसा बना देंगे कि उसमें डुबकी लगायी जा सके। देख लीजिए, रिस्पना के हाल आज भी वही हैं जैसे थे। रिस्पना कब्जा मुक्त तो हो नहीं पायी सदानीरा क्या खाक बनती ?

कहां है इन्वेस्टर्स समिट में हुए सवा लाख करोड़ का निवेश ? कहां हैं वो उद्योग धंधे और कहां हैं साढ़े तीन लाख रोजगार जिनके सपने दिखाये गए, जिनके लिए सरकार के खर्च पर खूब विदेश यात्राएं हुईं ? पता है न, बेरोजगारी की दर कहां पहुंच चुकी है ? कभी दो फीसदी बेरोजगारी दर भी बहुत ज्यादा लगती थी, आज वही दर चौदह फीसदी के पार हो चली है। बातें तो इस साल को रोजगार वर्ष के रूप में मनाने की भी खूब की गयी, करीब साठ हजार तो सरकारी पद खाली हैं, रोजगार कितनों को मिला यह यक्ष प्रश्न है अभी तक।

क्या हुआ हर अस्पताल में डाक्टर पहुंचाने की बातों का और क्या हुआ शिक्षकों और कर्मचारियों के लिए पारदर्शी तबादला नीति के दावों का ? मुख्यमंत्री को शायद याद होगा कि उनकी अपनी बिटिया की उनसे मुख्यमंत्री बनने पर क्या अपेक्षा थी, यही न कि कोई बिटिया बिना इलाज के नहीं मरनी चाहिए। बीते तीन साल में न जाने कितनी बेटियां लचर स्वास्थ्य सेवाओं के चलते दुनिया से विदा हो गयीं। सरकार तो यह भी नहीं कह सकती कि वह कम से मुख्यमंत्री की बिटिया की अपेक्षा पर खरी उतरी। स्वास्थ्य महकमे में क्या काम हुआ होगा, जब सरकार तीन साल में स्वास्थ्य महकमे को एक मंत्री तक नहीं दे पायी।

चलिए आगे बढ़ते हैं, बातें तो पलायन रोकने के लिए गांव केंद्रित विकास की बहुत हुई। मगर हुआ उल्टा, गांव की जमीनों को नगर निगम और नगर पालिकाओं में शामिल कर दिया। योजना स्मार्ट गांव की नहीं, स्मार्ट सिटी की बनायी गयी। चिंता और बातें तो भूतहा गांवों की भी खूब की गयी मगर कोई उजड़ा गांव तीन साल में आबाद हुआ क्या ? हुआ यह कि हर माह लाखों रुपए के खर्च पर एक पलायन आयोग बना दिया गया, जो सिर्फ रिपोर्टों को कापी पेस्ट करने का काम करता है। आयोग का अधिकारिक दफ्तर पौड़ी में है, मगर आयोग खुद वहां से पलायन किए हुए है।

शहरों को लेकर भी बातें बड़ी-बड़ी हुईं हर साल, मगर एक देहरादून शहर को भी स्वच्छता सर्वेक्षण में सम्मानजनक जगह नहीं मिली। करोड़ों रुपया प्रचार पर खर्च तो हुआ मगर शहर साफ रखने की योजना तैयार नहीं हो पायी। शहर की कोई एंट्री ऐसी नहीं हैं जहां सड़ांध न आती हो। पर्यटन की ‘13 जिले 13 डेस्टिनेशन योजना’ पर भी सिर्फ बातें ही हुई हैं, हकीकत तो यह है कि पर्यटन के लिए पर्याप्त बजट भी नहीं है।

बातें तो जीरो टालरेंस की भी बहुत हुई, मगर बताओ तो धरा गया कोई भी नेता या बड़ा अफसर ? कोई नहीं। एक अदना मृत्युंजय साल भर से जरूर अंदर है, वो भी इसलिए क्योंकि उसका बाहर रहना कई बड़ों के लिए खतरा हो सकता है। पता है इस राज्य में चंद साल की नौकरी वाले डिप्टी कलेक्टर तक करोड़पति हो जाते हैं। एक शुरुआती वक्त था जब कोई आईएएस अफसर यहां आना नहीं चाहता था, लेकिन आज उत्तराखंड सबकी पसंद में शामिल है। नौकरी का भी सीधा फंडा है, दिल्ली में किसी ‘पावरफुल’ को ‘माई बाप’ बनाओ और उत्तराखंड में मनचाही पोस्टिंग पाओ। उत्तराखंड मूल के ही जो अफसर उत्तराखंड राज्य आवंटित होने पर सौ बीमारियों का हवाला देते हुए उत्तराखंड काडर बदलने का प्रत्यावेदन देते थे, वही आज कर्ताधर्ता बने हुए हैं।

बातों के इसी सिलसिले में ‘सौ दिन में लोकायुक्त’ देने का वायदा करने वाले, सरकार बनने के तीन साल बाद भी लोकायुक्त नहीं नियुक्त कर पाये। क्यों नहीं दे पाये, क्या इसलिए कि कहीं सफेदपोश और नौकरशाहों के ‘गिरेबां’ तक हाथ न पहुंच जाएं ? जी हां, असल बात है ही यही। छात्रवृत्ति घोटाले को ही लीजिये, क्या बड़े अफसरों और सफेदपोशों की शह के बिना करोड़ों की हेराफेरी संभव है। बिल्कुल नहीं, मगर आज तक एक भी बड़े अफसर और नेता का नाम इस घोटाले में नहीं आया। मामला कई राज्यों से और कई महकमों से जुड़ा है फिर भी सरकार ने सीबीआई को मामला नहीं दिया। हरिद्वार, रुद्रपुर और देहरादून में सिडकुल की जमीनों के घपले घोटाले पर भी बातें बहुत हुई, मगर नतीजा यहां भी सिफर ही रहा। घपले घोटालों पर हुई बातों का तो कोई अंत ही नहीं लेकिन काम किसी पर नहीं हुआ।

सुना था कि श्रीनगर मेडिकल कालेज सेना को सौंपा जाएगा, इसके बाद व्यवस्थाएं वहां बदल जाएंगी। न डाक्टरों की कमी होगी और न इलाज की दिक्कत। सिर्फ बातें ही सुनायी दीं इस पर, काम कहां तक पहुंचा यह भगवान ही जानें। सुना तो यह भी था कि पौड़ी को लेकर सरकार बड़ी संजीदा है, सिर्फ नाम भर की कमिश्नरी रह गयी पौड़ी को फिर से आबाद करने के लिए भी बड़ी-बड़ी बातें कर आयी थी वहां सरकार। काम क्या हुआ होगा इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि स्थायी तौर पर एक कमिश्नर को देहरादून से पौड़ी नहीं बैठा पायी सरकार।

कहा तो यह भी पूरे जोरशोर से गया था कि राज्य में बेनामी संपत्तियां जब्त होंगी। जब्त जमीनों पर स्कूल खोले जाएंगे। निकम्मे और कामचोर अफसरों की कुंडली तैयार हो रही है, उन्हें जबरन रिटायरमेंट दिया जाएगा। न जाने कहां है वह कामचोरों की लिस्ट और कहां हैं वो बेनामी संपत्तियां। विडंबना देखिए कि सरकार कहती है निकम्मों को जबरन रिटायरमेंट दिया जाएगा और बड़े अफसर कहते हैं निकम्मों को पहाड़ पर भेजेंगे। हुआ दोनो में कुछ भी नहीं, न निकम्मे रिटायर हुए और न पहाड़ पर भेजे गए। हां यह जरूर पता लग गया कि देहरादून में बैठे अफसरों की नजर में पहाड़ की पोस्टिंग आज भी पनिश्मेंट ही है।

बातें तो भांग की खेती और पिरूल से बिजली बनाने की भी हुई हैं मगर यहां बात कंडाली को लेकर हुई बात की करते हैं। सरकार ने कंडाली का व्यवसायिक उपयोग करने की बात की, कंडाली की जैकेट पहनकर पूरी कैबिनेट का फोटो सेशन भी हुआ। सरकार का फोटो खूब सुर्खियों में रहा, सरकार ने वाहवाही भी बटोरी। मगर योजना क्या होगी, यह आज तक नहीं पता। जाहिर है कंडाली के व्यवसायिक उपयोग के लिए उसकी खेती करनी होगी। यह खेती कैसे होगी, कंडाली की व्यवसायिक खेती की क्या तकनीक नहीं है इसका कोई पता नहीं।

सरकार की कम बातों पर निकली यह बात हालांकि बहुत लंबी होती जा रही है, मगर बात तो यह भी हुई थी कि बिना प्लान के सरकार कोई घोषणा नहीं करेगी। कोई घोषणा ऐसी नहीं होगी जिसके लिए बजट की व्यवस्था न हो और जिसकी पूरी कार्ययोजना न हो, मगर ऐसा क्या हुआ कि पूरे तीन साल बाद गैरसैण को बिना किसी प्लान और कार्ययोजना के ग्रीष्मकालीन राजधानी घोषित किया गया। अभी तो सरकार यह भी नहीं आंकलन कर पायी है कि वहां क्या दिक्कतें आएंगी।

अंत में सिर्फ इतना ही कि अगर तीन साल में वाकई ‘बातें कम और काम ज्यादा’ है तो समझ नहीं आता कि देहरादून से लेकर दिल्ली तक यह ‘हल्ला’ क्यों है ? क्यों त्रिवेंद्र के अपनों की ही जुबां पर यह है कि त्रिवेंद्र हटेंगे, त्रिवेंद्र अपना चुनाव भी नहीं जीतेंगे, त्रिवेंद्र के नेतृत्व में चुनाव हुए तो 2022 नहीं जीतेंगे ? अब तो सरकार भी यह नहीं कह सकती कि ऐसा कुछ नहीं है, पिछले दिनों खुद पार्टी ने इस सबको अफवाह भी करार दिया है। बहरहाल त्रिवेंद्र सरकार अपने तीन साल के कार्यकाल की जिस जोर-शोर से ब्रांडिंग कर रही है, उसे देखते हुए तो लगता है कि कुछ है जिसकी ‘पर्देदारी’ हो रही है।



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