योगेश भट्ट
पुलिस पर अक्सर ‘सवाल’ उठते हैं, कभी ‘चूक’ भी होती है तो ‘दाग’ भी लगते हैं । ऐसा स्वाभाविक भी है, क्योंकि पुलिस के काम की प्रकृति है भी कुछ ऐसी ही । आरोप लगने, चूक होने और सवाल उठने की संभावनाएं इसमें हर पल बनी रहती है । हालांकि पुलिस पर लगने वाले यही तमाम दाग उस वक्त धुल जाते हैं, जब पुलिस इंसानियत की मिशाल पेश करती है, अपराधियों को सबक सिखाती है। पुलिस पर उठने वाले सवालों के भी तब कोई मायने नहीं रह जाते, जब मानवता की रक्षा के लिए वह देवदूत बन जाती है । मगर जब पुलिस खुद ही इंसानियत को तार तार करने पर उतर आए, पुलिस खुद ‘लुटेरी’ हो जाए और ‘षड़यंत्रकारियों’ में शामिल हो जाए तो पुलिस पर भरोसा करना मुश्किल हो जाता है ।
उत्तराखंड की ‘मित्र पुलिस’ का भरोसा अब टूट रहा है, पुलिस खुद ही इंसानियत को तार तार करने में लगी है । दो दिन पहले की घटना है कि नौ साल की एक दुष्कर्म पीड़ित बिटिया और दुष्कर्म के आरोपी को पुलिस एक ही वाहन से कोर्ट लेकर जाती है । परिवार के लोग सवाल उठाते हैं तो जिम्मेदार अफसर का हैरान करने वाला जवाब आता है कि “थाने की जीप चढ़ाई पर नहीं चढ़ पाती इसलिए पीड़िता और आरोपी एक निजी वाहन से लाया गया” । आश्चर्य यह है कि यह उस अधिकारी का बयान है, दो माह पहले जिसके सरकारी वाहन से राजधानी की सड़क पर खुद पुलिस एक लूट को अंजाम देती है । फिलवक्त इन दो अलग अलग घटनाओं ने पुलिस का एक भयावाह चेहरा उजागर किया है । सवाल उठ रहा है जिसे ‘मित्र’ पुलिस कहा जाता है आखिर वह किस ओर जा रही है ?
पता नहीं सरकार और पुलिस महकमे के आला अफसरों को अंदाजा है भी या नहीं कि पुलिस की छवि आम लोगों के बीच बहुत तेजी से गिर रही है । हाल की घटना को लीजिए, राजधानी से लगे टिहरी जिले के नैनबाग क्षेत्र में एक नौ साल की बच्ची के साथ एक युवक दुष्कर्म करता है । बच्ची की हालत बेहद गंभीर होती, चार दिन तक बच्ची को इलाज नहीं मिल पाता । पुलिस आरोपी को गिरफ्तार करती है और दुष्कर्म पीड़ित बच्ची को आरोपी के साथ ही एक ही गाड़ी में लेकर चल देती है। जरा कल्पना कीजिये, क्या गुजरी होगी बच्ची और उसकी मां पर पूरे रास्ते ? बड़े हंगामे के बाद घटना के कहीं चौथे दिन जाकर उसका इलाज शुरू हो पता है । चिकित्सक खुद मान रहे हैं कि अभी तक बच्ची घबराई हुई है, सामान्य नहीं हो पायी है । परिजनों का कहना है कि डर के कारण वह संभवत: बयान भी सही से नहीं दे पायी है । बहरहाल यह घटना तो पुलिस की संवेदनशीलता पर बड़ा सवाल है ही। हालिया इस घटना को अगर दो महीने पुरानी घटना से जोड़कर देखा जाए तो पुलिस के प्रति घृणा का भाव घर करने लगता है ।
दरअसल ठीक दो माह पूर्व एक खबर चर्चा में आती है कि राजधानी में पुलिस के एक दरोगा और सिपाहियों ने मिलकर एक गाड़ी से एक करोड़ की नगदी भरा बैग लूटा । लूट में पुलिसकर्मियों ने अपने आईजी की ही सरकारी गाड़ी का इस्तेमाल किया । पहले पहल जिसने भी सुना उसे यकीन नहीं हुआ मगर बाद में पता चला कि घटना सही थी । पुलिसकर्मियों ने सरकारी गाड़ी का इस्तेमाल कर लूट की, इसका प्रमाण भी पुलिस के हाथ लग गया । नैनबाग वाली घटना में जब पीड़ित बच्ची को आरोपी के साथ लाने की घटना सामने आती है तो यही आईजी साहब कहते हैं कि थाने की जीप चढ़ाई नहीं चढ़ पाती , इसलिए पुलिस की जीप से पीड़िता को नहीं लाया गया । दोनो घटनाओं को जोड़कर देखेंगे तो सवाल तो उठेंगे ही, यह तो कहा ही जाएगा ही कि पुलिस की गाडियां लूट के लिए तो इस्तेमाल हो सकती है मगर पीड़ित की सुरक्षा के लिए उपयोग नहीं हो सकती ।
चलिए एक नजर दो माह पुरानी लूट की घटना पर भी डालते हैं । यह घटना दरअसल एक बड़ा षड़यंत्र थी, जिसमें कुछ पुलिसकर्मी सब कुछ जानते बूझते शामिल थे। कानूनी तौर पर यह महज एक लूट और सरकारी वाहन का दुरूपयोग का मामला हो लेकिन सैद्धांतिक तौर पर यह बहुत बड़ा अपराध था। पुलिसकर्मियों ने न सिर्फ अपने फर्ज से ही गद्दारी की थी बल्कि आम जनता का भरोसा भी तोड़ा । इससे घटना को अंजाम देने वाले चंद पुलिसकर्मियों पर ही सवाल नहीं उठे बल्कि पूरी पुलिस फोर्स कटघरे में खड़ी हो गयी । घटना का दुखद पहलू यह है कि सीधे सीधे पुलिस की साख से जुड़े सवाल पर आरोपी दरोगा और सिपाहियों का न महकमा सबक दे पाया और न सरकार ।
जिस घटना पर सख्त एक्शन सबक के तौर पर लिया जाना चाहिए, उस घटना में लीपापोती कर रफा दफा करने की कोशिश की जा रही है । नैतिकता, नियम, कानून, पारदर्शिता सब हाशिए पर रख दिये गए । सच सामने न आने पाए इसलिए घटना से जुड़े सत्य और तथ्य दफन कर दिये गए । हाल यह है कि घटना से जुड़े तमाम सवाल अपनी जगह ज्यों के त्यों खड़े हैं, और घटना के तमाम आरोपी आसानी से जमानत पर बाहर भी आ चुके हैं।
घटना के मुताबिक कि राजपुर रोड़ स्थित एक क्लब में अप्रैल माह की संभवत: 4 तारीख की रात अनुपम शर्मा नाम का एक कारोबारी किसी राजनेता के करीबी कहे जाने वाले अनिरुद्ध पंवार को एक बैग सौंपता है । रात के वक्त यह बैग लेकर राजनेता का करीबी बताया जाने वाला अनिरुद्ध पंवार वहां से निकलता है तो पुलिस की एक गाड़ी उसका पीछा करते हुए उसे रोक लेती है और बैग जब्त कर लेती है। जिस व्यक्ति से बैग लिया जाता है उसे लगता है कि वह चुनाव के दौरान निगरानी रखने वाली किसी टीम का शिकार हुआ है । चूंकि अनिरुद्ध पंवार उत्तराखंड के एक बड़े राजनैतिक परिवार का बेहद करीबी बताया जाता है। मामला हाईप्रोफाइल था तो दबा रहा, मगर कुछ दिनों बाद मामला पुलिस के एक बड़े अधिकारी की जानकारी में आता है तो खबर उड़ती है कि बैग में एक करोड़ रुपया था । बैग की पुलिस थाने से लेकर इनकम टैक्स दफ्तर तक में तलाश करायी जाती है तो कहीं बैग की कोई जानकारी नहीं थी ।
पुलिस ने सीसीटीवी कैमरों के फुटेज छाने तो पता चला कि वाकई इस तरह की घटना हुई है और इसे पुलिस के एक दरोगा और कुछ सिपाहियों ने ही अंजाम दिया है । जिस दरोगा की अगुवाई में यह सब हुआ वह उत्तराखंड पुलिस का चर्चित दरोगा है । पुराने पुलिस मुखिया का बेह उसे बेहद नजदीकी बताया जाता है । हकीकत वाकई चौंकाने वाली थी शुरू में पुलिस ने जांच की सही दिशा पकड़ी लेकिन अचानक जांच घूम गयी । बैग में एक करोड़ की नगदी होने की बात सिरे से गायब हो गयी, बताया गया कि बैग में तो कुछ शराब की बोतलें और कपड़े थे। कुछ दिन तो आरोपी पकड़ से बाहर रहे और उसके बाद पुलिस ने लूट की सामान्य धाराओं में मुकदमा दर्ज कर आरोपियों को जेल भेज दिया। अब सभी आरोपी जमानत पर छूट चुके हैं,किसी को कोई परेशानी नहीं हुई ।
मुकदमा, गिरफ्तारी और फिर सबकी जमानत होने के बाद पुलिस की नजर में यह मामला खत्म हो चुका है । जबकि इस लूट के सच से जुड़े तमाम सवाल अभी जिंदा हैं । घटना क्या थी ? कौन उसका सूत्रधार था, कौन कौन उसमें शामिल थे ? लूट की रकम कितनी थी, कहां से आयी थी ? रकम कहां ले जायी जा रही थी और अब कहां है ? लूट का मकसद क्या था ? वारदात के सूत्रधार और आरोपी पुलिसकर्मियों के बीच क्या संबंध था ? यह सब सवाल अनुत्तरित हैं ।
सुनने में यह आ रहा है कि वादी यानी जिसने लूट की शिकायत की अब वह भी यह कहा रहा है कि उसे नहीं मालूम बैग में क्या था ? घटना का सिर्फ एक पक्ष यही नहीं है कि बैग में क्या था, इस पूरे प्रकरण में अनुपम शर्मा और अनिरुद्ध पंवार की असलियत का सामने आना भी जरूरी था । आरोपी दरोगा दिनेश नेगी और अनुपम शर्मा के संबंधों की पड़ताल भी जरूरी है, अगर इस पूरे प्रकरण में और कोई कड़ियां हैं तो उनका खुलासा भी जरूरी है । आरोपियों और वादी के बीच अगर कोई ट्रीटी हुई भी है तो उसका भी खुलासा होना चाहिए था ।
नैतिकता तो यह कहती है कि जिस अधिकारी की गाड़ी का इसमें इस्तेमाल घटना में हुआ, पहले तो खुद अधिकारी को वह पद छोड़ना चाहिए था । नहीं तो सरकार को उस अधिकारी को हटा देना चाहिए था । जो पुलिसकर्मी इस घटना में शामिल थे उन्हें गिरफ्तार करने के साथ ही बिना देरी किये तत्काल उन्हें सेवा से बर्खास्त किया जाना चाहिए था । साफ है कि लूट की इस घटना को पुलिसकर्मियों द्वारा किसी और के इशारे पर अंजाम दिया गया , पुलिस का इसमें रणनीतिक तरीके से इस्तेमाल किया गया ।
ऐसे में पुलिस को इस षडयंत्र का खुलासा कर पुलिसकर्मियों का इस्तेमाल करने वालों के खिलाफ कड़ी कार्यवाही की जानी चाहिए थी । वारदात में शामिल पुलिसकर्मियों का पूरा इतिहास खंगाला जाना चाहिए था । कौन उन्हें संरक्षण देता रहा उसका भी खुलासा करना चाहिए था । मगर पुलिस बैकफुट पर है, ऐसा लगता है कि सबकुछ जानते हुए जानबूझकर दूध का दूध और पानी का पानी नहीं किया जा रहा है । घटना के बाद एक ओर पूरी पुलिस फोर्स कटघरे में है तो महकमे के ईमानदार अफसरों और जवानों का मनोबल भी गिरा है। पुलिस के हर छोटे बड़े अफसर से लेकर सिपाही तक हर किसी को संदेह की नजर से देखा जा रहा है ।
मौजूदा हालात चिंताजनक इसलिए भी हैं क्योंकि इस वक्त उत्तराखंड पुलिस फोर्स की कमान मजबूत, बेदाग और ईमानदार अफसर के हाथों में है । प्रदेश में पुलिस की मुखिया की सादगी और ईमानदारी अपने आप में एक नजीर हो । कभी कल्पना भी नहीं की जा सकती कि ऐसे नेतृत्व में पुलिस लूटेरी, संवेदनहीन, या षडयंत्रकारी हो सकती है । सच यह है कि उत्तराखंड पुलिस की छवि इतनी खराब नहीं थी । नया तंत्र होने के कारण पुलिसिंग में कुछ कमियां जरूर हैं लेकिन इसकी काबिलियत और मंशा पर कोई सवाल कभी नहीं रहा ।
उत्तराखंड पुलिस के जांबाज जवानों से लेकर होनहार पुलिस अफसरों ने तमाम मौकों पर खुद को साबित किया है । इन्वेस्टिगेशन हो, कानून व्यवस्था हो या फिर आपदा से निपटने की चुनौतियां, उत्तराखंड पुलिस जबमिशन पर निकली तो खरी उतरी । उत्तराखंड पुलिसकभी देवदूत बनी भी नजर आयी तो तमाम मौकों पर उसने इंसानियत की मिशाल भी पेश की । यह भी कमफक्र की बात नहीं कि उत्तराखंड की पुलिस एवरेस्ट फतह करने वाली देश की इकलौती राज्य पुलिस है ।
ऐसा नहीं है कि उत्तराखंड पुलिस पर पहले सवाल नहीं उठे, तमाम बार चूक भी हुई कई मौकों पर लापरवाही भी सामने आयी । रणवीर एनकाउंटर जैसी घटनाओं में पुलिस की बड़ी फजीहत हुई तो जमीनों के अवैध करोबार पर पुलिस की भूमिका पर सवाल उठे । मगर फिर भी आम जनता के बीच पुलिस पर भरोसा बना रहा । पुलिस द्वारा लूट की घटन के बाद हालात वाकई गंभीर हैं । सरकार और पुलिस महकमा दोनो को पुलिस से उठते भरोसे को समय रहते गंभीरता से लेना होगा । समय रहते सिस्टम नहीं चेता तो कोई संदेह नहीं कि भविष्य में परिणाम और गंभीर होंगे ।