मेरे शहर की हर गली में दो— तीन पत्रकार पर खबरों से नही कोई सरोकार




सोनी चौहान
मेरे शहर की हर गली में दो—तीन पत्रकार बनकर घूम रहे है। गाड़ी पर भी प्रेस लिखा है और गले में भी आई कार्ड है। लेकिन खबरों से कोई सरोकार नही है। सड़कों पर गडढ़े हो। पीड़ित सरकारी विभागों में चक्कर लगा रहे हो। प्रशासनिक अधिकारी अफसर बनकर मौज काट रहे हो। सरकारी बाबू फाइल चलाने को तैयार नही है। पटवारी किसी की सुनने को तैयार नही है। लेकिन पत्रकार है पर खबरों से बेखबर है। जनता की समस्याओं को उठाने को तैयार नही है।
हरिद्वार में गत कुछ दशकों में पत्रकारों की संख्या में भारी इजाफा हुआ है। पत्रकारिता के आकर्षण ने इस संख्या में बढोत्तरी करने में भी सार्थक पहल की है। जिसके चलते हर कोई पत्रकार बनने के सपने देखने लगता है। अधिकारियों के बीच पत्रकारों के बैठने का अंदाज भी पत्रकार बनने पर विवश कर देता है। जिसके बाद एक सामान्य आदमी भी किसी से जुगाड़ कराकर एक आई कार्ड बनबाने की जुगत भिड़ाता है। आई कार्ड बनबाया और गाड़ी पर प्रेस लिखवाया और बन गए पत्रकार। किसी पार्किंग में गाड़ी खड़ी करने के दौरान प्रेस कार्ड महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। पार्किग कर्मचारी को हड़काने में भी कार्ड अच्छा काम आता है। कई बार नो एंट्री में प्रेस कार्ड ठीक ठाक रोल अदा कर देता है। सरकारी विभागों में कर्मचारियों से काम निकलवाने में भी प्रेस कार्ड चल जाता है। लेकिन विभागीय अधिका​री शहर की मौजूदा हालत को लेकर चर्चा करने लगे तो वह पत्रकार बगले झांकने लगता है। उक्त पत्रकार अधिकारी को शहर की सभी कमियां भी गिना देगा। लेकिन उस पत्रकार से उन कमियों को दूर की जाने के लिए की गई कवायद और खबरों के बारे में पूछा जाए तो शायद ही कोई जबाव उसके पास हो। क्योकि खबर क्या होती है ये तो पत्रकार ने जाना समझा ही नही। कार्ड बनवाते समय पत्रकार महोदय को आवश्यक भी नही लगा। प्रेस कार्ड जरूरी था सो बन गया। कार भी मुफ्त में पार्किंग होने लगी। लेकिन सवाल जस का तस है कि पीड़ितों की मदद करने वाला पत्रकार कहां मिलेगा। असली पत्रकार कौन है। कार्ड वाला या बिना कार्ड वाला।



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