प्रसिद्ध कवियत्री डॉ मनु शिवपुरी की ये कविता सभी महिलाओं को समर्पित




  • नवीन चौहान      
  • पृथ्वी पर भगवान की सबसे अनुपम कृति स्त्री अर्थात औरत है। मां, बेटी, बहन, बहू, पत्नी और सास के रिश्तों की कसौटी पर खरा उतरने की जिम्मेदारी सिर्फ एक औरत को निभानी होती है। पिता के घर में जन्मीं, उनके घर की गलियों में खेली कूदी और पेड़ों की छांव तले बड़ी हुई उस घर को छोड़कर दूसरे घर अर्थात पति के घर को संभालने और संवारने की जिम्मेदारी एक स्त्री के ऊपर ही होती है। सामाजिक मान मर्यादाओं को निभाने की अहम जिम्मेदारी औरत पर ही होती है। मानवीय संवेदनाओं से भरी हुई कोमल हृदय की एक स्त्री सामाजिक झंझटों का दंश झेलती है। एक स्त्री सामाजिक ताने— बाने से खुद को महफूज रखकर अपने दिल में कितना दर्द समेटे रखती है। उस दर्द को खुद वो ही समझ सकती है। लेकिन स्त्री के दिल में कितना दर्द होता है, कितने जख्म होते है। इस वेदना को सिर्फ एक स्त्री ही महसूस कर सकती है। हरिद्वार की प्रसिद्ध लेखिका व कवियत्री डॉ मनु शिवपुरी ने समाजसेवा के क्षेत्र में भ्रमण करने के बाद तमाम महिलाओं की जिस पीड़ा को देखा और महसूस किया उनको कविता के माध्यम से व्यक्त किया है। उन्होंने अपनी कविता में एक स्त्री के सपनों की ऊंची उड़ान को थम जाने और सपनों के बिखरने के बाद स्त्री खुद को किस तरह संभालती है। इसका वर्णन किया है। उन्होंने कविता में बताया कि स्त्री कभी कमजोर और असहाय नही होती। स्त्री खुद सक्षम है और इतिहास बदलने का साहस रखती है। पुरूष को जन्म देने वाली खुद एक स्त्री है। लेकिन स्त्री सामाजिक मान मर्यादाओं की प्रतिमूर्ति है। जिसके कारण वह मौन रहकर भी सबका भला करती है। वर्तमान के 21वीं सदी के भारत में भी महिलाओं के लिए ये कविता पूरी तरह से चरितार्थ होती दिखाई पड़ती है।
  • स्त्री
    🍁 मैं अब जान गई हूं ,
    मुझको कैसे जीना है,
     टूटी फूटी हूं खुद से ,
    खुद को कैसे सीना है ।।
  • मैं अब जान गई हूं ,
    मुझको कैसे जीना है ।।
    जब कुछ लोग– मुझे,
    बहुत- दुख दे जाते हैं,
     सुखचैन अमन- मेरा,
     सब छीन के ले जाते हैं,
  • उनके पुरस्कृत-गड्ढों को,
  • मुझको कैसे भरना है,।
     मैं अब जान गई हूं, मुझको अब कैसे जीना है।।
  • कभी तपिश सी होती है,
  • जल जाती हूं अं तः तक, घुट-घुट ती– हूं ,
    कह पाती नहीं कभी अब तक,
    उनके कुरेदें जख्मों में ,
    खुद मरहम कैसे भरना है।
     मैं अब जान गई हूं, मुझको कैसे जीना है।।
  •  🍁 शायद मुझ में ही कमियां है ,
    मैं दुनिया के लायक नहीं,
     अवगुन ही अवगुण है मुझ में ,
    गुण तो कुछ मुझमें भरा नहीं ,
    दुनिया दुनिया के मतलब है जितने,
     बस उनको पूरा करना है,
     अब जान गई हूं मैं, मुझको कैसे जीना है ।।
  • 🍁 हां कुछ बेबस सी हूं पर मैं लाचार नहीं ,
    हां मैं  तुमसे जुड़ी हूं ,
    पर पंगु मेरे आधार नहीं, जीना तो बहुत है पर,
    विष,घुट घुट– पीना –है ,
    अब मैं जान गई हूं ,
    मुझको कैसे जीना है।। मुझको कैसे जीना है।।
               🍁 डॉ मनु शिवपुरी🍁


Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *