कांस्टेबल जोश में होते है भर्ती और होश में खो देते है सम्मान




नवीन चौहान
उत्तराखंड पुलिस के जवान अपने होशो हवास में पूरे जोश के साथ खाकी वर्दी पहनते हैं। मन लगाकर टैªनिंग करते हैं। लेकिन पुलिस की मुख्यधारा में शामिल होते ही अपने आत्मसम्मान को खो देते हैं। थाने और कोतवाली में तैनाती के दौरान एसओ और उच्च अधिकारियों से मिलने वाली फटकार कांस्टेबल की मनोदशा को प्रभावित करती हैं। अनुशासित महकमे में पुलिसकर्मी अपने मन की बात अधिकारियों से नही कह पाते हैं। जिसके चलते उनकी मनोदशा लगातार बिगड़ती चली जाती हैं। उत्तराखंड पुलिस के चार कांस्टेबलों के सुसाइड करने के बाद अब कांस्टेबलों की मनोदशा को समझने की जरूरत आन पड़ी हैं। पुलिस अफसरों को कांस्टेबलों के लिए एक सेल गठित करने की जरूरत हैं। जहां कांस्टेबल खुलकर अपनी बात कह पाएं और उनके आत्मसम्मान की रक्षा भी हो पाए।
उत्तराखंड पुलिस के चार कांस्टेबलों के आत्महत्या करने के प्रकरण ने पुलिस महकमे के भीतर सबकुछ ठीक नहीं होने की बात को जगजाहिर कर दिया हैं। कांस्टेबल हरीश, जगदीश विष्ट, विपिन सिंह भंडारी और चंद्रवीर ने अलग-अलग तरीके से आत्महत्या की। चारों ने कोई सुसाइड नोट तक नहीं छोड़ा। चारों कांस्टेबल व्यवहार कुशल थे और अपनी डयूटी के प्रति कर्तव्यनिष्ठ थे। ऐसे में सवाल उठता है कि आखिरकार आत्महत्या करने की कौन सी वजह रही होगी। जिसने इन चारों को अपनी जिंदगी समाप्त करने पर विवश कर दिया। बताते चले कि पुलिस महकमा बेहद ही अनुशासित विभाग माना जाता हैं। इस विभाग में कांस्टेबल फील्ड में सबसे ज्यादा सक्रिय रहता था। जनता से जुड़ाव और अधिकारियों को रिपोटिंग करने की जिम्मेदारी कांस्टेबल की होती हैं। लव्वोलुवाव ये कि कांस्टेबल पुलिस महकमे की रीढ़ की हड्डी की तरह होता है। जिसके कंधों पर विभाग की सबसे ज्यादा जिम्मेदारी होती है। लेकिन सबसे अहम और महत्वपूर्ण बात बात ये कि कांस्टेबल बस यस सर तक सीमित होता हैं। पुलिस महकमे में किसी भी काम को कांस्टेबल नो नही कहता है। परिवार से दूर रहकर पुलिस डयूटी करना और अधिकारियों से मिलने वाली फटकार कांस्टेबलों की मनोदशा को पूरी तरह से प्रभावित करती हैं। इन चार कांस्टेबलों के आत्महत्या करने के बाद से कांस्टेबलों के लिए काउंसलिंग कराये जाने की बात भी उठने लगी हैं। जिससे कांस्टेबलों की मनोदशा को सुधारा जा सके। उनके दिल में दर्द देने वाली बात को समझकर उस पीड़ा को दूर किया जा सके। हालांकि हरिद्वार के अधिवक्ता अरूण भदौरिया कांस्टेबलों की समस्याओं को दूर करने के लिए पहल करते रहे है। अधिवक्ता अरूण भदौरिया के प्रयासों से ही पहाड़ के नौ जनपदों में तैनात कांस्टेबलों को गृह जनपद में पोस्टिंग देने की व्यवस्था बनाई जा सकी। अब एक बार फिर से कांस्टेबलों की सुध लेने की बात जोर शोर से उठने लगी है। आखिरकार कांस्टेबलों के बलबूते ही पुलिस व्यवस्था सुदृढ़ तरीके से कार्य करती है।
पुलिस कांस्टेबलों को होती है हिचकिचाहट
पुलिस कांस्टेबल अपनी बात को कहने में संकोच करते है। अधिकारियों से मिलने और अपनी बात कहने में कई बार कांस्टेबल हिम्मत नहीं जुटा पाते है। हरिद्वार जनपद में साल 2017 में सीसीआर में मनोवैज्ञानिक डॉ मुकुल शर्मा की काउंसलिंग के दौरान कांस्टेबलों ने इस बात को पुरजोर तरीेके से उठाया था। कांस्टेबलों ने मुकुल शर्मा को बताया कि थानों में उनकी बात को सुना नहीं जाता है। अधिकारी भी उनकी समस्या को समझना नहीं चाहते है।
छुट्टी के लिए भी गिड़गिड़ाते है कांस्टेबल
कांस्टेबल पारिवारिक कारणों से छुट्टी लेने के लिए अधिकारियों के आगे गिड़गिड़ाते है। कई बार तो उनको अधिकारियों से मिलने तक नहीं दिया जाता है। कई बार कांस्टेबल अधिकारियों के सम्मान में अपनी बात नहीं कहते है। आखिरकार इन कांस्टेबलों की मनोदशा को समझने की जरूरत आन पड़ी है।
काम के बोझ तले खुद को भूल जाते है कांस्टेबल
पुलिस महकमे में डयूटी के घंटे असीमित होते है। इस दौरान भी लाईन हाजिर और निलंबन की सबसे पहली गाज कांस्टेबल पर ही गिरती है। कांस्टेबल पूरी तरह से काम के बोझ तले दबे होते है। चेकिंग और रात्रि गश्त के अलावा वारंट तामील कराने और सुरक्षा व्यवस्था को बहाल करने की जिम्मेदारी कांस्टेबलों की मनोदशा को बिगाड़ देती हैं।



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