पत्रकारों को दलाल कहो या ब्लैकमेलर, लेकिन पत्रकार है तो सिस्टम है




नवीन चौहान
लोकतंत्र का चतुर्थ स्तंभ माने जाने वाले पत्रकार अपने साथ किसी भी तरह की घटना होने के बाद ही अपने कार्य से विमुख नही होते। सामान्य दिनों की तरह ही अपने कार्य को वखूवी अंजाम देते है। सोई हुई सरकारों को जगाते रहते है। पत्रकार सांकेतिक हड़ताल तो करते है लेकिन अपनी जिम्मेदारी से मुंह नही मोड़ते है। सांकेतिक हड़ताल करने के दौरान समाचार लिखना नही छोड़ते है। रोजाना की तरह ही खबर लिखते है और जनता की आवाज बनते है। लेकिन समाज में हर दूसरा वर्ग चाहे अधिवक्ता, फैक्ट्री कर्मचारी, सरकारी विभागों के कर्मचारी, तमाम कर्मचारी यूनियनें सभी वर्ग मामूली घटनाओं, चाहे मारपीट, गाली गलौच हो या विवाद के घटित होने के बाद हड़ताल का रास्ता अपनाते है। ताजा घटनाक्रम कोलकत्ता का है। जहां एक चिकित्सक के साथ मारपीट की घटना के बाद चिकित्सक हड़ताल पर है। मरीजों का बुरा हाल है। इलाज के अभाव में मरीज दम तोड़ रहे है। लेकिन भगवान कहें जाने वाले चिकित्सक है कि हड़ताल तोड़ने को राजी नही। आखिरकार भारत के सिस्टम में ये किस प्रकार की खामी है। कि सरकार को जगाने के लिए अपने मूल कर्तव्य धर्म को छोड़कर हाथ पर हाथ रखकर बैठ जाते है। सरकार पर अपनी नाराजगी जाहिर करते है। अपनी बात मनवाने के लिए अपनी ताकत अर्थात जिस पेशे से पहचान है उसी को छोड़ देते है। जबकि समाज के सभी वर्गो को चाहिए ये कि नाराजगी के दिनों में और अधिक बेहतर काम करने के सरकार की आंखे खोल देनी चाहिए। तभी सिस्टम में परिवर्तन होगा। तब तक के लिए एक बड़ा सवाल है कि आखिरकार कब बदलेंगे हम और कब हमारा सिस्टम बदलेगा ?

भारत के लोकतंत्र में चार मजबूत स्तंभ है। न्यायपालिका, कार्यपालिका, विधायिका और पत्रकारिता। इन चारों स्तंभ के बगैर समाज में लोकतंत्र की कल्पना नही की जा सकती है। लेकिन विडंबना देखिए कि सभी स्तंभ पूरी तरह से पावरफुल है। जबकि पत्रकारिता का स्तंभ बेहद ही खोखला है। बाहर से चमकदार और सबसे ज्यादा ताकतवर दिखने वाले पत्रकार आर्थिक तौर पर सबसे कमजोर होते है। चमकदार इसलिए कहा कि सरकार और नौकरशाही पत्रकारों के इर्द-गिर्द मंडराती है। कुछ सालों से तो न्यायपालिका को भी पत्रकारों की जरूरत महसूस होने लगी। लेकिन आज हम समाज में आए दिन होने वाली हड़ताल पर कर रहे है। कोलकत्ता में चिकित्सक के साथ मारपीट की घटना के बाद एक बहस जरूरी हो गई कि अपने सम्मान की रक्षा करने के लिए हड़ताल के अलावा कोई दूसरा विकल्प नहीं है। सामान्य जनता को परेशान किए बिना हम सरकार को उनकी गलती का बोध नही करा सकते है। एक रोडवेज बस के चालक के साथ मारपीट हो जाती है तो उस राज्य की सभी बसे पहिया जाम कर देती है। हड़ताल होती है, शोरगुल होता है। जनता परेशान होती है। मीडिया की खबरें बनती है तो सरकार जाम खुलवाने के लिए चालकों से बातचीत कर हड़ताल खत्म कराती है। किसी सरकारी कर्मचारी से कोई अभद्रता करता है तो वहां की कर्मचारी यूनियने हड़ताल पर चली जाती है। जनता परेशान होती है। हड़ताल मीडिया की हेडलाइन बनती है तो सरकारें हड़ताल खत्म कराने का प्रयास करती है। किसी नेता के साथ कुछ घटित हो जाता है तो तमाम कार्य बाधित हो जाते है। नेता आंदोलन कर देते है। नेताओं को भी मीडिया में प्रमुख स्थान चाहिए सो वह भी सियासत के अंदाज में जनता की परेशानी का सबब बन जाते है। जनता को न्याय दिलाने की शपथ लेने वाले अधिवक्ता भी किसी विवाद के बाद कार्य बहिष्कार करने का तरीका ही अपनाकर अपनी आवाज बुलंद करते है। ऐसे में कभी सुना है कि किसी पत्रकार के साथ मारपीट हो गई और पत्रकारों ने कलम रोक दी हो। किसी पत्रकार ने अखबार में कार्य करना बंद कर दिया हो। कोई टीवी चैनल खबर नही दिखा रहा हो। सभी पत्रकार पूरी कर्तव्यनिष्ठा के साथ अपने कार्य को वखूवी अंजाम देते है। यूपी में एक टीवी चैनल के पत्रकार के साथ मारपीट की घटना के बाद कोई हड़ताल हुई। हां पत्रकार यूनियनों ने घटना की निंदा की। लेकिन कार्य करने की जिम्मेदारी से मंुह नही मोड़ा। तो क्या ये मान लिया जाए कि पत्रकार ही समाज का सबसे सजग प्रहरी है। वास्तव में पत्रकारिता के बिना किसी भी सिस्टम के दुरस्त रहने की कल्पना करना बेमानी है। पत्रकार है तो पुलिस, प्रशासन, सरकार सभी सिस्टम में है। भले ही पत्रकारों को लोग दलाल कहें, ब्लैकमेलर कहें लेकिन पत्रकारों की मौजूदगी जनता और समाज में एक सुरक्षा का एहसास है। जनता की आज भी उम्मीद पत्रकारों से ही है। सत्ता पक्ष से लेकर विपक्ष पत्रकारों के माध्यम से ही अपनी आवाज बुलंद करता है। ऐसे में किसी भी घटना के बाद हड़ताल करने वाले लोगों को कई बार सोचना चाहिए। कुछ सीखना चाहिए पत्रकारों से। पत्रकार कभी हड़ताल नही करते। पत्रकार अपना दर्द भी किसी से नही कहते। पत्रकारिता एक चुनौतीपूर्ण कार्य है। लेकिन पत्रकार कभी हड़ताल पर जाने की नही सोचते। पत्रकारों को दलाल कहो या ब्लैकमेलर लेकिन एक बात तो सच है कि पत्रकार है सिस्टम है। इसीलिए इस सिस्टम को बनाये रखने के लिए ही पत्रकार हड़ताल नही करते है। इन सबके बीच पुलिस महकमा कभी हड़ताल नही करता। अनुशासन के हाथों में बंधा होना मजबूरी हो या ​समाज की सुरक्षा करने की नैतिक जिम्मेदारी। तमाम आंतरिक मुसीबतों का सामना करने वाली पुलिस प्रशासन हमेशा अपने कर्तव्य का पालन करते दिखाई पड़ती है। पुलिस और पत्रकारों की तरह ही अन्य सभी को भी देशहित में हड़ताल का रास्ता छोड़कर विरोध करने का दूसरा तरीका निकालने की जरूरत है। तभी ये देश तरक्की के मामले में अन्य देशों से आगे दिखाई देंगा।
प्रेस क्लब के वरिष्ठ पत्रकार राजेश शर्मा ने बताया कि पत्रकार हड़ताल नही करते वो तो पड़ताल करते है। उन्होंने कहा कि हड़ताल को किसी हद तक भी वाजिव नही ठहराया जा सकता है। चिकित्सक, वकील और पत्रकार सभी अपने पेश से सेवा कर रहे है। हड़ताल से बचना चाहिए। सकारात्मक सोच के साथ आगे बढ़ना चाहिए। पत्रकारों की स्थिति ये है कि उनमें एकता कम होती है।



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