‘असत्य पर सत्य की विजय’, रावण-कुंभकर्ण-मेघनाथ के पुतले धू-धू कर जलने लगे




बुलंदशहर। ‘असत्य पर सत्य की विजय’ के प्रतीक के रूप में दशहरा का परम्परागत पर्व अपूर्ण उल्लास के साथ मनाया गया। रावण व राम के बीच चले युद्ध में श्रीराम ने रावण का वध कर दिया तभी रावण कुंभकर्ण मेघनाथ के पुतले धू-धू कर जलने लगे।
प्रदर्शनी के मैदान में दोपहर से ही रामलीला देखने के लिए दर्शक पहुँचने लगे। रामलीला शुरू होने से पूर्व मैदान के चारों ओर दर्शक ही दर्शक दिखाई दे रहे थे। इस मौके पर सुरक्षा की दृष्टि से सुरक्षा के व्यापक इंतजाम किये गये थे जिसमें बड़ी संख्या में पुलिस व होमगार्ड के जवान तैनात किये थे। भीड़ में मैटल डिटेक्टर लिए भी कुद्द सादेभेष में पुलिस कर्मी दिखाई दे रहे थें। सूरज द्दिपने से पूर्व रामलीला शुरू हुई, युद्ध से पूर्व श्रीराम और भ्राता लक्ष्मण ने महाविद्या मन्दिर में जाकर माँ देवी की पूजा अर्चना की दर्शकगण जोश के साथ रामलीला देखने में व्यस्त थे।
गगनभेदी उद्घोष के बीच श्रीराम ने मैदान में प्रवेश किया उनके साथ लक्ष्मण व हनुमान जी भी थे। नियत संवादो के साथ श्रीराम व रावण का वार्तालाप हुआ। रावण और मर्यादा पुरूषोतम राम जब आमने सामने आये तो द्धंद युद्ध शुरू हो गया। लड़ाई के मैदान में रावण कभी श्रीराम के प्रहार से बचने के लिए उधर भाग रहा था कभी इधर, भागता था। दर्शकगण दम साधे सत्य और असत्य की लीला को देख रहे थे।
अगणित भीड़ के बावजूद मैदान में होने वाले युद्ध की तलवारों की खनक लोगों को रोंमाचित कर रही थी। श्रीराम जब जब रावण पर प्रहार करते और वह मैदान से आगे बढ़ता, उस समय दर्शकगण बोल राजा रामचंद्र की जय का उद्घोष करते। मैदान में चारों ओर जमा दर्शको में नगर के अलावा समीपवर्ती गांव से आये लोग थे जो मैदान के समीप द्दतों पर झुण्ड़ के रूप में दिखाई दे रहे थे।
राम और रावण के बीच युद्ध पुनः शुरू हुआ, एक ओर वनवासी श्रीराम अपने हाथ में धनुषवाण लिए हुए थे दूसरी ओर रावण था। दोनो ओर से वाणों का आदान प्रदान हो रहा था। इसी तरह जोश और वीरता के वातावरण में श्रीराम तीर चलाते रहे मगर रावण पराजित नहीं हो पा रहा था। अंत में रावण के भाई विभीषण ने श्रीराम को रावण को मारने की युक्ति बताई। विभीषण के भेद को सुनकर श्रीराम ने वाण चलाया रावण मैदान छोडकर भागा। मगर श्रीराम ने रावण को एक ही बाण में खत्म कर दिया। मैदान में चारों ओर से जय जयकार हुआ। मेघनाथ फिर कुभकर्ण के बाद रावण के पुतलों में आग लगा दी। पुतले धू-धू कर जलने लगे। देखते ही देखते रावण कुम्भकर्ण व मेघनाथ के विशालकाय पुतले रोशनी के साथ जले। जोरदार अतिशबाजी से लोगों का मनोरंजन हुआ।
जलेबी खाने की परम्परा आज भी कायम
रावण दहन को देखकर घर लौटते समय जलेवियां खाने की प्राचीन परम्परा बुलंदशहर में आज भी कायम है। लोग आसपास लगी जलेबी की दुकानों के अलावा इस मौकें पर नगर के विभिन्न स्थानों से जलेबियां सपरिवार खरीदकर खाते है। प्रदर्शनी मैदान में एकत्र हुए चांट पकौड़ी वालों से मेले जैसा नजारा था। यहा अनगिनत लोग खानें में मशगूल रहें। रावण दहन के बाद जलेवियां खाने की परिपाटी शहर में सालो पुरानी है। लिहाजा रावण दहन के बाद इन लोगों ने यहा लगी दुकानों से जलेबियां खरीदकर खाने के साथ पुरानी परम्परा का निर्वहन किया है। इसके अलावा जो लोग रावण दहन को देखने नहीं गये। उन्होने घर पर ही जलेबियों का आनंद लिया।
महाकाली ने सड़कों पर दिखाये तलवारबाजी के आकर्षक करतब
महाकाली की शोभायात्रा देर रात तक समूचे शहर में श्रद्धापूर्वक भक्तिभाव से निकाली गयी। महाकाली के स्वरूपों ने सड़कों पर तलवार बाजी के आकर्षक करतब दिखायें। इस अवसर पर श्रद्धालुओं की भारी भीड़ उमड़ी। कानून व्यवस्था बनाये रखने के लिए चप्पे-चप्पे पर पुलिस तैनात थी। यहाँ काली मन्दिर पर पूर्जा अर्चनाकर महाकाली के स्वरूपों ने अपनी परम्परागत रूप से तलवारें ग्रहण की। काली स्वरूप के साथ आठ दस सहयोगी थे। सड़कों पर काली ने करतब दिखाये। तलबार बाजी के नमूनों को देखकर श्रद्धालु बोल महाकाली की जय का उदघोष करने लगते थे। कम से कम दो दर्जन से अधिक ऐतिहासिक झाँकियां काली की शोभायात्रा में शामिल हुयीं। यह प्रदर्शन अगले दिन सवेरे तक चलता रहा।
भारत के कोने-कोने से आती है झांकियां
बुलंदशहर का काली मेला समूचे पश्चिमी उत्तर प्रदेश में प्रसिद्ध है। भारत के कोने-कोने से झांकियां आकर यहाँ प्रदर्शन करती है। अब तक तमाम स्थानों पर इन झाँकियों ने जनपद का नाम रोशन किया है। झाँकियों में मर्यादा पुरूषौतम राम-लक्ष्मण, जानकी व अन्य देवी देवताओं की झाकियों के अलावा अन्य प्रकार की झांकी के डोले थे। काली अखाड़ा ने रातभर तलवार बाली के अद्भूत नमूने श्रद्धालुओं के समझ प्रस्तुत किये। महाकाली की शोभायात्रा निर्धारित समय से एक धंटे विलम्ब से शुरू हुयी।
पहले होती हर पूजा
शुरू में महाकाली के स्वरूपों ने मन्दिरों में पूजा अर्चना की। उसके बाद एक एक करके महाकाली के स्वरूप मन्दिर से बाहर आते गये। सबसे पहले ये स्वरूप हनुमान व शनिदेव के मन्दिर पर गये जहाँ पूजा की। फिर ढ़ोल नगाड़ों और तेज आवाज के डीजे की धुन पर हवा में तलवारें लहराती हुयी महाकाली के पांव सड़कों पर थिरकते देख श्रद्धालुओं को भी किसी अदभूत शक्ति का अहसास होता था। महाकाली की शोभायात्रा में भगवान शंकर की भूमिका निभाने वाले स्वरूपों को भी काफी कवायद करनी पड़ी। सड़कों पर लेटकर काली स्वरूप ने जब भगवान शंकर के सीने पर पाव रखा तो महाकाली के साथ भगवान शंकर की जय का उदघोष होने लगा।


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